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धर्मशिक्षा. ब्दक अर्थानुसार, सत्यत्रतका रत्तीभर भी उल्लंघन नहीं करना है, बल्कि सत्यव्रतकी मर्यादामां शामिल है ।
जो महाशय, मोक्षके मार्ग-ज्ञान, क्रियाका मूलभूत, सत्यवचनही बोलते हैं, उनके चरणोंके रेणु कोंसे पृथिवी पवित्र रहती है । सत्यव्रत रूपी धनसे संपन्न जो सज्जन, मृषावाद बिलकुल नहीं बोलते, उन्हें, भूत, प्रेत, सर्प, वगैरह कुछभी कष्ट नहीं पहुँचा सकते । वैर, विरोधका कारण भूत, मर्म भेदी, असूया जनक, शङ्कनका स्थान भूत, कर्कश, ऐसा वचन, पूछने परभी नही बोलना चाहिये । धर्मका ध्वंश होता हो, क्रियाका लोप होता हो, स्व सिद्धान्त के अर्थका अनर्थ हो जाता हो, तो, उसका प्रतीकार करनेके लिये, विना पूछेभी शक्तिमान् पुरुषको अवश्य समुचित बोलना चाहिये। समझो ! कि प्रहारका चिन्ह तो शान्त हो जाता है, परन्तु दुर्वचन-तिरस्कार वचनके चिन्ह को शान्त होना बडा ही मुश्किल है। चन्दन, चन्द्रकी रोशनी, चन्द्रमणि, मोतीकी माला वगैरह, जितना आल्हाद नहीं दे सकते, उतना आल्हाद, सत्य वाणीसे प्राप्त होता है । चाहे, शिखी हो, वा मुण्डी, जटाधारी, नग्न, अथवा प्रबल तपस्वी हो, मगर वह अगर असत्य वादी होगा, तो निन्दाका पात्र ही है । पारदारिक ( परस्त्री गमन करनेवाले) लोगोंका तो फिरभी कुछ प्रतीकार हो सकता है, म. गर असत्य वादिका कहीं निस्तार नही देखते । सत्यवचनके प्रभावसे राजा लोग, सत्यवादीकी बातको शिरपर उठा लेते है,
और देवता लागेभी सत्यवादीका पक्षपात करते हैं, तथा आग वगैरह विषम अवस्थाएँभी सत्यवादी महात्माके सत्य तेजको नही सहन करती हुई शान्त हो जाती हैं, ये सब सत्य वचनके प्रभाव देख, विना धन व्ययके सुलभ, विना परिश्रमकेभी प्राप्य, सर्व दुःखोंको निकन्दन करने वाला, इस लोक, और परलोकमें
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