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অমীহীং৷ सामायिक लेके समभावसे प्रसन्न मुँहसे खुशदिलसे और शरीरकी अचपलता पूर्वक धर्मशास्त्र पढना चाहिए । संसारकी बेशुमार दुःखमय उपाधियोंसे छुटकर निवृत्तिकी सडक भूत सामायिक प्राप्त हुआ, तहां भी यदि सावध प्रवृत्ति का आक्रमण होता रहे, विकथा पि. शाची की परवशता में झुकना पडे, मायादेवी की प्रपञ्च जालमें फँसना पडे, क्रोध दावानल में झम्पापान खाना पडे, अभिमानअजगर का ग्रास होना पड़े, और लोभ रूपी साँपसे मुच्छित होना पडे, तो फिर कहाँ रोना । सचमुच यह तालाब प्राप्त करके भी प्यासा रहना है, अगर सामायिक--भवन में घुसकर के भी संसार की गर्मी का दूर हटना न हो ।
____ अपार संसार महासागर में बड़ी मुश्किलीसे नर भव को पा कर जो मनुष्य विषय सुख के तरंगों में चक्कर खा रहा है,
और दो घडी तक भी आत्मश्रेय नहीं साध सकता, वह समुद्रमें गिरने पर मिले हुए नाव को छोड पत्थर पकडनेवाले जैसा महा. मूर्ख है । वही पंडित है, जिसने अपना परमार्थ साधा। वही विद्वान् कहा जा सकता है, जो संसार के विषयों के फंदेंमें नहीं फँसा । पोथे पढने मात्रसे पंडिताई नहीं कही जा सकती, किन्तु शास्त्रविद्याके मुताबिक सदाचार पालनेसे सच्ची पंडिताई मिली कही जा सकती है। “ज्ञानस्य फलं विरतिः" ज्ञानका फल है विरति-विषयों से-दुष्प्रवृत्तियों से विराम पाना-दूर हटना । ज्ञान प्राप्त हुआ, पर आचार अच्छा न हुआ तो वह ज्ञान किसी कामका नहीं, उलटा भव भ्रमणका हेतु ही बनता है । वह कम अक्लका भी आदमी स्तुतिपात्र है, अगर अच्छी प्रवृत्ति पूर्वक परमात्मा की परिचर्या करता हो, मगर विद्वान् हो के भी उपदेशमें अच्छी अच्छी बातें बता के अगर दुराचारोंमें रमण किया करता हो, तो वह आलादर्जेका मूर्ख है-फूटी किस्मतका आदमी
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