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________________ धर्मविषा. १९ क्या? । इस प्रकारसे समस्त प्राणी अपने अपने कर्मानुसार उसउस योनिमें पैदा होते हैं। और कर्मका फल भोगते हैं। इसलिये पितृ तर्पण श्राद्ध आदि सब पाखंड ही समजने चाहिये । भाइयो ! वार वार छांन करके पानी पीना चाहिये जिस किसीने जैसा तैसा कह दिया, उसको विना परीक्षा, नहीं मानना चाहिये । अब अन्तिम वाक्यके ऊपर आईये! अग्निमें होमा हुआ द्रव्य देवता ओंको कैसे प्रीति कर सकता है। क्या अग्निमें होमा हुआ घृता. दि द्रव्य देवताके भोगमें आता हे ? यानि उस द्रव्यको देवता लोग खा लेते हैं ? अगर कहोगे, खालेते हैं, तो यह बात झूठ है, क्यों कि देवोंका शरीर हम लोगोंसे विचित्र प्रकारका है, वे लोग हम लोगोंकी तरह कवल भोजन नहीं करते । अनिमें होमा हुआ द्रव्य स्पष्ट नष्ट होता हुआ जब मालूम पडता है, तो फिर वह द्रव्य, देवोंके खानेमें कैसे आता होगा ? यह विचारणीय है। यदि अग्निको, देवोंका मुँह मानकर देवताओंको आहुत द्रव्यका भोजन सिद्ध किया जाय, तो भी किसी सुरतसे सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि उत्तम, मध्यम और अधम देवता लोग, एकही अग्निरूप मुंहसे द्रव्यका भोग करते हुए परस्पर उच्छिष्ट ही भोजन करनेवाले सिद्ध होंगे! वाह जी वाह ? क्या वेदकी खुशबू ? सचमुच विचारे देवता लोगोंको मुसलमानोंसे भी अधम बतानेवाला वेद सिद्ध हुआ । निदान मुसलमान लोग मिलकर एकही पात्रों खाते हैं, परन्तु वेदने तो एक ही मुँहसे देवता लोगोंका खाना मंजूर रक्खा । और भी देखिये ! कि एक शरीरमें बहुत मुख तो किसी जगहपर सुन भी सकते हैं, मगर, बहु शरीरमें एक मुँह सर्वथा असंभव ही है, फिर भी असंभव बातोंको बतानेवाले वेदकारको कैसा समझना चाहिये ? । तथा और भी सोचनेकी जगह है कि बहुत देवोंका एक ही मुंह माननेपर पूजा आ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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