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________________ २० धर्मशिक्षा. दिसे आराधित किया हुआ एक देव, और निन्दा आदिसे अपमानित किया हुआ दूसरा देव, एक ही मुखसे पूजकनिन्दक पुरुषको अनुग्रह वा निग्रह वाक्य कैसे बोल सकेंगे? । पाठकगण ! जब देवताओंका मुंह अनि माना, तब देवताओंके दूसरे अवयव भी अग्निकी तरह कोई न कोई मून वस्तु माननेही पडेंगे, नबतो देवता लोग अदृश्य होही नही सकते ' फिर पिशाचादिको अदृश्य कहनेवाले सनातन वैदिक ग्रंथ कैसे प्रामाणिक माने जायँग? । क्याज्यादह कहें, इतना तो सोचो कि अग्निमें हरकिसमकी विष्टादि चीजें पड सकती हैं, फिर अग्निको देवोंका मुख मानना यह देवोंकी दुर्दशाही करनी है । ऐसे ऐसे बहुत अप्रामाणिक वचन वेदोंमे प्रकट हैं । तत्त्वदृष्टिसे देखते हुवे हमें नहीं मालूम पडता है कि वेदोंका रचयिता महात्मा विशुधज्ञानी हो। बस! वेदही जब अशुद्ध ठहरा, फिर वेदानुयायी दर्शन वा मतान्तर कैसे शुद्ध होसकते हैं। क्योंकि छद्मस्थ दृष्टिरागी पंडितोंने वेदोंकी श्रुतियोंके भिन्न भिन्न अर्थ निकाल कर वा समझकर दर्शन पद्धति खडी करदी है ! इसी प्रकारसे अद्यापि वैदिक धर्मोंकी धारा चली आरही हैं। और वर्तमानमें भी उसी प्रकार नवीन २ मजहब वेदानुसारी निकल रहे हैं। सुनिये ! इसी विषयमें एक कवि की कविता " श्रुतयश्च भिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः " ॥१॥ अर्थः-श्रुतियां परस्पर भिन्न हैं, परस्पर विरोधग्रस्त हैं, और स्मृतियांभी परस्पर विरुद्ध अर्थको बता रही हैं । उन्होंका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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