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________________ धर्माशक्षा रचयिता एक मुनि नहीं हैं भिन्न भिन्न विचारवाले भिन्न भिन्न मुनियोंसे उनकी रचना हुई है। एवंच एक मुनिसे रचना नहीं होनेके कारण किसका बचन सत्य ? किसका मिथ्या ? ऐसा संदेह पैदा होता है। अतएव श्रुति आदिमें प्रामाण्यका निश्चय नहीं होसकता है। इसलिये धर्म रहस्यका पता कहां मिले ? बस! शास्त्रों की पचति को छोडकर, व्यवहार पवित्र, महाजनेासे सेवित, दयादान देव पूजा प्रभृति प्रसिद्ध ही मार्ग आदरमें लाना चाहिये । देखो महाशय गण ! कविकी कविता, कविका हृदय खूब मालूम हुआ ? बिचारा कवि, श्रुतियों के विरोध देखकर उदासीन हो गया, और ऋषियोंके झगडों में नहीं फँसा-दृष्टि पक्षपाती नहीं बना। और श्रुतिस्मृतियोंसे असंतुष्ट हो कर वहांसे निकल गया, व्यावहारिक पवित्र मार्ग के ऊपर आया । देखिये ? अब कहां रही वेदवाणीकी मधुरता ? वेद वाणीके ऊपर पानी ही फिर गया। सुनिये ! पाठक वर्ग ! औरभी वेदकी कठिनता, जिसने अपना कर्तृत्वका स्पष्ट उल्लेख भी नहीं दिया, कैसे देखें ? देवे तो अपनी ढोल जितनी पोल प्रकट ही हो जाय, हा ? कैसी वेदने धूम मचादी ? कैसा वेदकार बहादुर ? हमें वेदकारकी चतुराई पर मुग्ध होना पडता है कि वेदका निर्माण करनेपर भी उसने वेदको अपौरुषेय सनातन पवित्र सिद्ध किया। ओहो? कैसा विचित्र इन्द्रजाल ? इस इन्द्रजालने तो ज्ञानी ऋषियोंको भी भ्रमित कर दिया, नहींतो जैमिनीय प्रजा, वेदको अपौरुषेय कैसे बोल सकती ?। न जाने जैमिनीयनेताको वेदकी पौरुषेयता मानने में क्या उदर पीडा होती थी? | क्या सर्वज्ञ सिद्धि प्रसंगसे डरकर वेदको अपौरुषेय माना । वाह ? बडी अक्ल । वेदको अपौरुषेय माननेपर क्या वह डर अब नहीं रहेगा ? अवश्य रहेगा । सुनिये ? जैमिनीयोंकी पुकार :-- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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