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________________ धर्मशिक्षा. बाधा रहित तीन (धर्म, अर्थ, और काम ) वर्ग पालने १८ । उचित रीतिसे, दीन-कंगाल-रंक तथा अतिथि, एवं मुनिजनोंकी प्रतिपत्ति ( भोजन-वस्त्रदान आदि ) करना १९ । हमेशा उदार दिल रखना, यानी कदापि दुराग्रह नहीं करना २०। गुणोंका पक्षपाती बनना २१ । निषिद्ध देश और निषिद्ध कालमें चयों (गमनादि) न करना । बलाबलका परिज्ञान करना । तपस्वी, महात्मा, ज्ञानवृष लोगोंकी पूजा करना २५। नौकर, सेवक खिदमतगार गुलामका पालन-पोषण करना २५ । दीर्घ (लंबी) नजरसे विचार करना २६ । विशेष रूपसे अपने चरित्रके ऊपर खयाल रखना ३७ । उपकारीके उपकारको याद रखना श् । लोकप्रिय होना २९ । लज्जालु होना ३० । दयालु होना ३१ । प्रसन्न रहना ३२ । परोपकारका स्वभाव रखना३॥ काम, क्रोध, लोभ, मान, मद, और हर्ष, इन छ: अन्तरंग (आस्माके-भीतरके) शत्रुओंका संहार करनेकी कोशिश करते रहना ३४ । इन्द्रिीयोंके परवश न होना ३५। ये ३५ गुण पाने पर मनुष्य, श्रावक-गृहस्थ धर्मकी ल्याकत हासिल करता है । गृहस्थ धर्म कहो! वा श्रावक धर्म कहो ! मतलब एक ही है । श्रावक शब्दकी व्युत्पत्ति है-शृणोति हितशास्त्रमिति श्रावकः, अर्थात् हितकारि शास्त्रको सुननेवाला, श्रावक कहाता है, यह, व्युत्पत्ति मात्र है, श्रावक शब्दका प्रवृत्ति निमित्त तो, समकीत मूल, बारह व्रत अथवा कोईभी व्रत है । + re: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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