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________________ धर्म शिक्षा. __ महानुभावो ! कोई साधु भ्रष्ट हो जाय, अथवा अपने (साधुके) आचारोंसे बिलकुल पतित हो जाय, तो उसकी बात यहां नहीं है, मगर जैन साधु जातिका व्यवहार देखना चाहिये । बस ! हो गया पहिला साधु धर्म । अव दूसरा श्रावक [गृहस्थ धर्म गृहस्थ धर्मकी योग्यता (ल्याकत) तबही हो सकती है,जब कि ३५ गुण प्राप्त हो जाय । पांतीस गुणोंका विवेचन योगशास्त्र वगैरह ग्रन्थों में अच्छी तरह किया है, मगर यहां ग्रन्थ गौरवके डरके मारे नाम मात्र पांतीस गुण बता देते हैं न्याय (नीति)से धन पैदा करना ११ शिष्टाचारोंकी तारीफ करना । अन्य गोत्रमें पैदा हुए तथा समान कुल और आचार वालेके साथ विवाह करना ३ । पापोंसे डरपोक रहना ४ । देशके व्यवहार मुताबिक चलना ५। किसीकीभी निन्दा न करना ६ । अति प्रकट नहीं, और बहुत गुप्त नहीं, ऐसे स्थानमें (जहां उत्तम पडोसका संग हो) बहुत दरवाजे रहित घर बनाना ७ । सज्जनोंके साथ संग करना । मातापिताकी सेवा करना ९। उपद्रवके स्थानको छोड देना १०। निन्दित कोंमें प्रवृत्ति न करनी ११॥ आमदनीके अनुसार व्यय (खर्च) करना १२ । दौलतके प्रमाणमें वेष रखना १३ । बुद्धिके *आठ गुण प्राप्त करने १९ । हमेशा व्याख्यान, धर्मशास्त्र सुनना १५ । अजीर्ण दशामें नहीं खाना १६ । समय पर प्रकृतिके मुआफिक भोजन करना १७ । परस्पर *शुश्रूषा १ श्रवण १ ग्रहण ३ धारण ४ ऊह ५ अपोह ६ अर्थज्ञान ७ और तत्त्वज्ञान, ये आठ, बुद्धिके गुण हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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