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विवेकी, लोग यदि गुरु नहीं बनेंगे, तो क्या दुरात्मा, क्रोधी, विष. यी, भोगी, रागी, अज्ञानी, परापकारी, स्वार्थी लोग, गुरु बन सकेंगे? |
सज्जनो! सोचने पर तत्वज्ञान होता है, मगर सोचना बड़ा कठिन है । गुरुपन अथवा सापन कैसा होना चाहिये? इस बातको सोचो ! सोचने पर पुख्ता विश्वास हो सकता है कि वर्तमान कलिकालमें भी साधुपनकी उच्च कोटीमें अगर किसीने उच्च पद पाया है, तो जैन मुनिगण है। अलबत्ते जैन प्रजामें बाजे यतिलोग ब्रष्टाचारी हैं, और मुँहपर पट्टी बांधने वाले ढूंढक, तेरापंथी लोग, असदाचारी तथा महा गन्दे रहते हैं. मगर यहाँ उनकी बात नहीं है, क्योंकि वे लोग साधुपदसे बाहर हैं। परमात्माके शासनके प्रेमी, शुद्ध श्रधालु, शुद्ध उपदेशक यविलोग, फिरभी जैनधर्मके मंडलमें बराबर दाखिल हैं, मगर ढूंढक और तेरापंथी साधु लोग, उत्सूत्र प्रलापी होनेसे शासनकी निन्दाका पातक उठाते हुए, पहिले समकीतहीसे जब बाहर हैं, तो जैनधी होनेकी तो बातही कहां रही ?। जैन नामके व्यवहार मात्रसे जैनधर्मी नहीं कहला सकते; यों तो जैन नामका व्यवहार, शिर पर उठाये हजारोंही मजहब क्यों न निकलें ?, मगर प्रकृतमें जैनधर्म शब्दसे जो बात अभिप्रेत है, वह बात हुए विदुन जो जैनधर्मी होना है सो मानो ! इन्द्रका ऐश्वर्य न होने परभी दरिद्र मनुष्यको, इन्द्र नामसे इन्द्र होना है, वह दरिद्र पुरुष नाम मात्रसे इन्द्र भलेही रहो, मगर वास्तवमें प्रसिद्ध अर्थके अनुसार, इन्द्र, नहीं हो सकता, वैसेही जैन नामको लिये फिरे हजारों मजहब, खरोद्धोषणसे शोर क्यों न मचा दें, मगर वास्तवमें प्रसिद्ध अर्थके अनुसार वे जैनधी कभी नहीं हो सकते। यह बात आगे विशेष खुल जायगी।
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