________________
धर्मशिक्षा. हमारा यह साफ मानना है कि किसी भी मजहबवालाकिसीभी धर्मवाला साधु क्यों न हो, मगर वह यदि द्रव्यका अनुचर नहीं है, तो उसकी तारीफ है, अखंड मंडलाकारको भजनेवाले लोग अगर रूपचंदजीको नहीं भजते हैं, तो वे शुद्ध धर्मोपदेशके कार्यसे, गुरु बराबर कहला सकते हैं। गुरुके गुण विना योंही गुरुपनकी गद्दी उठा लेनी यह तो चोरीका दोष है। धर्मके उपदेश करनेवाले और उक्त पाँच महाव्रत पालनेवाले ही साधुलोग सच्चे गुरु हो सकते है।
वर्तमान (कलियुग) जमानेमें भी जैन मुनिलोग आचार-विचारसे अन्य साधुओंको अपेक्षा कितने बढे चढे है, यह अक्लमंदोंसे छिपा नहीं है।
सूक्ष्म, स्थूल जीवोंकी दया करनेवाले, सत्य--मधुर भाषण करनेवाले । घर घर जाके भिक्षा लेनेवाले, अनुचित लोभ-तृष्णा नहीं रखनेवाले, धातुके पात्रमें तथा गृहस्थके घर पर नहीं जिमनेवाले, सौंफ, इलायची लोंग तकका भी संग्रह नहीं करनेवाले, अभक्ष्यका भक्षण नहीं करने वाले, द्रव्यको बिलकुल नहीं रखने वाले,पैदल गमन करने वाले,स्त्रीका स्पर्श मात्रभी नहीं करने वाले अपराधी पुरुषको प्रायः क्रोधातुर होके शाप नहीं देनेवाले, उचित नम्रतामें रहनेवाले, अपनी क्रियामें यथाशक्ति हमेशा तत्पर रहने वाले, वर्षाऋतुमे देशाटन नहीं करने वाले, आगका स्पर्श भी नहीं करने वाले, कच्चे पानीका व्यवहार नहीं करने वाले, हरी (सचित्त) वनस्पतिको नहीं छुनेवाले; अपनी प्रज्ञानुसार जैनागमोंको जानने वाले, परोपकार-वैराग्यगर्भित सरल उपदेश देने वाले. ईश्वरके प्रणिधानमें रमने वाले, जैन साधु लोग, साधुके आचारमें, कहांतक बढे हैं, यह विशेष कहनेकी कोई जरूरत नहीं। ऐसे महात्मा, शांत, दांत, त्यागी, वैरागी, ज्ञानी, परोपकारी,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com