SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मशिक्षा. हमारे अनुभवसे, और शास्त्रोंके वचनसे यह बात स्पष्ट है कि साधुको द्रव्यका जो संग्रह करना है सो साधुके हृदय--मंदिरमें गुप्त बैठे हुए कामदेवकी सत्ताको यथार्थ प्रसिद्ध ही करना है। नहीं तो बतलाना चाहिये-साधुके लिये द्रव्य रखनेका और क्या प्रयोजन हो सकता है ? । साधु, कैसाभी तपस्वी-ध्यानी--क्रियावान् क्यों न हो ? मगर वह यदि द्रव्यके परिग्रहमें फँसा है, तो उसे साधु कौन कह सकता है ? । हम नहीं समझते कि द्रव्यके ऊपर ममता रहते परभी संसारका परित्यागदीक्षाग्रहण, करनेवाले क्यों करते होंगे ? । अगर साधु हो करके भी द्रव्य रखना मंजूर समझते हैं, तो फिर किस लिये साधु होते होंगे? । संसारहीमें (गृहस्थरूपसे) क्यों नहीं बैठे रहते?। पघडी उतारके साधुके रंगित वस्त्र पहिनने मात्रसे साधुपन नहीं मिल सकता । हम तो यह उद्घोषणा करते हैं साधु हो करके यदि द्रव्य रखना मंजूर था, तो गृहस्थही रहना अच्छा था, ताकि गृहस्थ धर्मका पालन तो बन सकता । साधु बनके जो द्रव्य रखता है,वह साधुभी नहीं और गृहस्थभी नहीं है, किंतु उसके लिये कुछ घोडे और कुछ गदहेके स्वरूपवाले खच्चरकी उपमा देनी समुचित समझी जाती है। समझो कि बडे भाग्यके अभ्युदयसे साधुत्व पाया जाता है। वे ही साधुपन लेते हैं, जिनकी तकदीरका सितारा चमकता हो, फिरभी (साधु होके भी) यदि द्रव्यका संग्रह कर नेकी दुर्बुद्धि पैदा हो-द्रव्य इकठे करनेकी कोशिश की जाय, तो हाय ! इससे ज्यादह क्या अफसोस बता ?, हाथमें आया चिंतामणि नहीं सम्हाला । साधुका एकही नियम तोडने परभी दुर्गति पाना शास्त्रकारभगवान् फरमाते हैं,तो सोचो ! कि द्रव्य पिशाचको तमाम व्रतोंका भोग देनेवाले साधुकी कौनसी गति होगी ? । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy