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________________ धर्मशिक्षा. चाहिये, कौन धर्मशास्त्र, गृहस्थके लियेभी तमाखु-गांजा फूंकना, अनुचित-पाप जनक न फरमाता हो ? । गृहस्थोंके लिये भी गांजा फूंकना महापाप है तो साधुओंके लिये तो कहना ही क्या ? | स्त्रीके छोडने मात्रसे साधुधर्म नहीं मिल सकता, किंतु साधुके प्रतिष्ठित आचारोंके प्रतिपालनसे साधुपन मिला कहाता है ! बहुतेरे साधुओंकी शिथिलताने यहांतक अपना पद जमा लिया है कि वे लोग गृहस्थसे भी अधिक, सांसारिक उपाधिका भार शिर पर उठाये फिरते हैं। हाथी, घोडा, बगी, खेत, इमारत, खजाना वगैरह गृहस्थ उपाधिओंमें आकंठ डूबे हुये महंतसाधु, गृहस्थ पदसे कितनी उंची हदपर विराजते हैं. यह कहनेकी कोई जरूरत नहीं। संसारको छोड साधु बन गये, तौभी रूपचंदजी के फंदमें अगर फँसना हुआ, तो सोचो ! साधुपन रहा कहां ? दौलत रखने परभी अगर साधुत्व कायम रहता हो, तोः कहिये ! गृहस्थोंने क्या अपराध किया ? गृहस्थलोग स्त्रीके भोगी होनेसे अगर साधु न कहलाते हों तो साधुलोग भी,अगर धनके अनुचर बनेंगे तो साधु कैसे कहला सकेंगे ? । पैसा रखना और साधुपनका दावा करना यह बात तीनों कालमें नहीं हो सकती। वास्तवमें देखा जाय तो साधुको द्रव्यकी जरूरत होनी ही क्यों चाहिये ? क्या भिक्षासे साधुलोग अपना पेट पूरा नहीं भर सकने ? क्या साधुओंको पहिननेके लिये कपडे नहीं मिल सकते ?, जब खानेके लिये भोजन, और पहिननेके लिये कपडे जगह जगह साधुओंके लिये तय्यार हैं,तो फिर किस बात के लिये साधुओंको द्रव्यकी आवश्यक्ता पडती होगी ? । शास्त्रकारोंका यह फरमाना है कि भिक्षासे अपने शरीरकी यात्रा करते हुए साधु, द्रव्यके संगसे सर्वथा दूर रहें। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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