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धर्मशिक्षा. है, इसमें कौन क्या कहेगा ?। सत्य वस्तुका सत्यत्व प्रकाश करना, सत्य वस्तुको लोगोंसे ग्रहण करानेकी कोशिश करना यह तो सज्जनोंका परम कर्तव्य है।
जैनधर्ममें जीव, ईश्वर, पुण्य, पाप, परलोक, मोक्ष,तपश्चर्या दान, दया, शील, अनुष्ठान, पवित्रता, प्रमाण, न्याय, युक्ति, तर्क, वगैरह सभी बातें जब भरी हैं, तो फिर किस बातसे जैनधर्मकी न्यूनता कही जा सकती है ? ।
देखिये ! जैनधर्मके कानून
जैनधर्ममें मुख्यत्वेन धर्मके रास्ते, दो प्रकारके बताये हैंएक साधुधर्म, दूसरा श्रावक धर्म । उनमें साधुधर्म, पांच महाव्रत रूप है
सर्वथा (करना नहीं, कराना नहीं, और करने वालेको अनुमोदना नहीं) प्राणातिपात विरमण, यानी जीवोंकी हिंसासे हटना १ । मृषावाद विरमण यानी मिथ्या भाषणसे दूर रहना २ अदत्तादान विरमण अर्थात् नहीं दी हुयी वस्तुको नहीं उठाना ३ । मैथुनविरमण यानी समस्त स्त्रियोंके ऊपर माता अथवा बहिनपनकी बुद्धि रखना, अर्थात् बिलकुल ब्रह्मचर्य पालन करना ४ । और पांचवां महाव्रत परिग्रहविरमण यानी धन, धान्य, सोना, रूपा, वगैरह द्रव्यको बिलकुल नहीं रखना ५।।
वर्तमान भारतवर्षमें सब धर्मवाले साधुलोगोंकी संख्या अगर गिनी जाय तो करीब ५६००००० होगी। मगर जैनेतर साधुओंकी दशा बहुत शोचनीय दिखाई देती है। जैनेतर साधुलोग, तमाखु, गांजा, भांग, वगैरह दुर्व्यसनोंमें इतने फँस गये हैं कि ज्ञान-ध्यान-सदाचारकी सडकसे बहुत दूर हठ गये । साधु हो करके भी गांजा फूंकना यह कितनी शरमकी बात?। बतलाना
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