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पक्षिा इन दोनोंमेंसे एकका भी निश्चय नहीं होनेसे उक्त ज्ञान संशय कहलाता है। प्रकृतमें वस्तुमात्र, सत् रूपसे भी निश्चित हैं, और असत् रूपसे भी निश्चित हैं; जैसे अग्निमें अग्निपन और द्रव्यपनका ज्ञान संशय नहीं कहलाता है, वैसेही एकही वस्तुमें सत्पन
और असत्पनका ज्ञान होना उसे कौन संशय कहेगा । जब एक ही पात्रमें कोई भाम उष्ण, और कोई भाग शीत मालूम पडनेसे एकही पदार्थमें भिन्नभिन्न प्रदेशधारा, शीत और उष्ण इन दोनों धर्मोंका रहना मंजूर रक्खा जाता है, तो फिर एकही वस्तुमें भिन्नभिन्न अपेक्षाओंसे सत्त्व और असत्व इन दोनोंको माननेमें क्या हर्ज है ? ।
क्या रघुनाथ शिरोमणि वगैरह पंडितोंने, एक ही वृक्षमें, वृक्षके मूलको लेकर कपि (बंदर)के संयोगका अभाव अथवा संयोगिका भेद, और शाखाको लेकर कपि संयोगकी विद्यमानता यानी संयोगिपना नहीं माना है ?। जब संयोगिपना और संयोगिका भेद इन दोनों विरुद्ध धर्मोको, अनुभवसे एकही वृक्षमें सिद्ध रक्खा तो फिर सत्व और असत्व इन धर्मोको परस्पर विरुद्ध क्यों समझना चाहिये ?, और एकही वस्तुमें उन्हें क्यों न मानना चाहिये।
क्या वस्तु केवल भावरूप सिद्ध हो सकती है.? इर्गिज नहीं, अगर केवलभावरूप ही वस्तु मानी जाय, तो एक घट वस्तु, पटरूप-हस्तिरूप-अश्वरूप हो जायगी। सर्व प्रकारसे भावरूप माननेमें, एक ही वस्तुको, विश्वरूप होनेका दोष कभी शान्त न होगा । इस लिये सब वस्तुएँ अपने रूपसे अर्थात् अपने द्रव्य-क्षेत्रकाल और भावरूपसे सत्,और पररूपसे यानी परकीय द्रव्य-क्षेत्रकाल और भावरूपसे असत् माननी चाहिये । जैसेकि द्रव्यसे, घट पार्थिव रूपसे है मगर जलरूपसे नहीं है। क्षेत्रसे, अजमेरमें बना हुआ घट, अजमेरका कहलाता है, किंतु जोधपुरका नहीं कारसे,
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