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________________ १० वर्मशिक्षा है, तो भी संक्षेपसे यही समझना चाहिये कि एकही वस्तुमें, सच्च, असत्व, वगैरह अनंत धर्मोको स्वीकारना उसका नाम हैस्थाद्वाद। जैसे एकही पुरुष, पुत्रकी अपेक्षा पिता, और पिताकी अपेक्षा पुत्र होता है, उसी तरह वस्तुमात्र, स्वरूप अर्थात् अपने रूपसे सत्, और दूसरे रूपसे असत् हैं । भिन्नभिन्न अपेक्षाओंसे भिन्नभिन्न धर्मोको एक वस्तुमें मानना यही स्याद्वाद शब्दका मतबक है। और भी देखिये ! समस्त वस्तु प्रतिक्षण पळटती रहा करती है-पूर्वपरिणामको छोडकर दूसरे परिणाममें आती रहती हैं। जैसे कुंडलको भांग कर कटक ( कडा) बनाया जाता है, उसमें पहला कुंडलरूप नष्ट हो जाता है, और दूसरा कटक (कडा) रूप पैदा होता है। लेकिन उन दोनों परिणामोंमे सोना तो वैसा का वैसाही रहता है । इसी दृष्टान्तसे सब वस्तु, पूर्वपरिणामको छोड नये नये परिणामों में दाखिलहोती हुई, सदातन चले आते (मृत्तिका वगैरह) द्रव्यको नहीं छोडती हैं; बस ! इसी अनुभवसे, उत्पत्ति-विनाश और धौव्य इन तीनोंसे युक्त समस्त पदार्थ समझने चाहिये, और यही स्यावाद कहलाता है । कोई पामर लोग कहते हैं कि यह स्याद्वाद संशयरूप बन गया, क्यों कि एक ही वस्तुको सत् भी कहना और असत्भी कहना यही संदेहकी मर्यादा है, जबतक सत् और असत् इन दोनों से एक (सत् वा भसत) निश्चित न बने, तबतक सत् असत् इन दोनों रूपसे एक वस्तुको समझना,यह सच्चा ज्ञान नहीं कहलाता। लेकिन यह समझना पामरोंका भ्रमरूप है, क्योंकि एकही वस्तुमें सत्त्व और अ. सत्त्व ये दोनों धर्म वास्तविक हैं । संशयतो वही कहलाता है कि 'यह पुरुष झेगा वा वृक्ष होगा ? यानी पुरुषपन और वृक्षपन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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