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धर्मशिक्षा. दिस्व देख प्रत्यक्षको प्रमाण, माना गया है, वैसे ही और शब्दों. में संवाद देख, शब्दको भी प्रमाण क्यों न मानना चाहिये ? अन्यथा अर्ध जरतीय न्यायकी बदबू लेनी पड़ेगी।
सब आस्तिक दर्शनोंके आगम, आत्माको जब साबीत करते हैं, तो एक ही चार्वाकका किया हुआ, आत्मवाद खंडन, किस बुद्धिमानको असरकारक होगा ? । सब विद्वानोंका, आत्मतत्त्वपर जब पुख्ता विश्वास है, तो एक चार्वाकका, आत्मवाद खंडन अमामाणिक ही सिद्ध होता है। बहुत महाजनोंकी, जिस बातपर मजबूत सम्मतियाँ छुटती हैं, तो, उस बात पर एक आ. दमी अगर विरुद्ध अभिप्राय दे देवे, मगर उसकी एक भी नहीं सुनी जाती, इसलिये आत्मवाद पर, नास्तिकोंका विरुद्ध आक्षेप, आस्तिक विद्वान् गणोंके सामने कुछभी सफल नहीं हो सकता यह विषय जितना स्फुट-स्पष्ट है, उतना ही युक्ति चर्चाके ढेरसे भरा है, मगर यहाँ इसको स्वतन्त्र स्थान नहीं दिया है. जिससे कि पूर्ण रीतिसे वाद-प्रतिवादकी कोटियाँ इस विषयपर, लहरादें।
. उक्त संक्षिप्त दलीलोंसे आत्मा जब निःगडा सिद्ध है, तो उसकी, प्राणोंके वियोग कर देनेसे, जो हिसा होती है, उसका परिहार कर दया व्रत पालना चाहिये ।।
यदि दया व्रतको अपने हृदयका आभरण न बनाया, तो कितना भी दम, देवभक्ति, गुरु सेवा, दान, अध्ययन, तप वगैरह किया करो, मगर सब निष्फलही हैं। क्या अफसोस बतायें, शम, शील, और दया है मजबूत पूल जिसका, ऐसे धर्मको छोड मन्दोंने हिंसाको भी धर्ममें शामिल रख ली, मगर तत्त्व तो यह है कि किसी भी कामके लिये कैती भी हिला नहीं करनी चाहिये, कैसा भी समझकर कैसी भी हिंसा अगर करोगे, तो वह पा
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