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________________ १४६ धर्मशिक्षातो आगार है, अर्थात् प्रतका भङ्ग न होवे । एवं अनजानपनभूल चूकसे किधरका कहीं चला जाऊँ, तौभी छुट्टी। उसी प्रकार स्थल मार्गका भी समझ लें। नियमसे बाहर देशकी चिट्ठी पत्री अखबार आवें, तो उन्हें पढनेकी बुट्टी रक्खें, और नियमसे बाहर देश वाले पर चिठी पत्री लिखना, कारणसे स्वीकार रक्खें । जितना निबह सके उतना बोझ उठाना, मगर ज्यादह बोझ उठा कर नीचे पटकना-गिरा देना नहीं । देव यात्रा गुरु यात्रा वगैरह धर्म क्रियाके लिये चारों दि. शाएँ खुली रक्खी जाय, तो कोई हर्ज नहीं । अव्वल तो सारो जिन्दगी तक यह व्रत पालना चाहिये, जिन्दगीभरके लिये अगर न बन आवे तो वर्षाऋतु-चतुर्मासमें तो जरूर यह व्रत धारण करना चाहिये । चतुर्मासमें पर्युषणा पर्व ऊपर हद्द बाहर प्रदेशमें, गुरु महाराजको वन्दना करने या कल्पसूत्र वगैरह सुननेको जाना हो तो बेशक ! जावें, कोई हर्ज नहीं, इसीसे तो इस व्रतके लेनेके शुरूमें धर्म क्रियाके लिये छुट्टी रक्खी जाती है। सदा सामायिक वाले जितेन्द्रिय मुनि महाराजोंके लिये तो यह व्रत है ही नहीं। उन्हें किसी दिशामें जाने का प्रतिबन्ध नहीं है, वजह इसकी यह है कि साधु लोग सर्वथा निग्रन्थ-निपरिग्रही और आरम्भोंसे मुक्त हैं, इस लिये उनका कहीं पर जाना पाप पोषक नहीं बजता। जैसे अमुक हद्दमें विहार करना है, उसी तरह सर्वत्र विहार करें तो कोई हर्ज नहीं है, उलटा सा. धुओंसें (जहाँ पधारेंगे, वहां) उपकार ही होगा, अतएव तो चारण मुनियोंका ऊर्ध्व गमन मेरु पर्वतके शिखरतक और तिर्यग्गमन रुचकशैल तक होता है। जो सज्जन सब दिशाओंमें जानेकी मर्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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