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________________ १४५ भशिया शास्त्रोंमें गृहस्थ लोग गरम लोहेके गोले समान कहे हैं, इसीसे तो जहां तहां उनके सिर पर आरम्भ का ढेर लदा ही रहता है, इस लिये गृहस्थाको धर्मके मार्गमें पहुंचाने के लिये यह व्रत क्या अच्छा बताया कि जिससे सब क्षेत्रोंके आरम्भ रुक जायँ । प्रतिज्ञात क्षेत्रमें यद्यपि निरंतर आरम्भ होते ही रहेंगे, तौभी प्रतिज्ञाके बाहरके जीवोंको तो अभयदान मिल गया, नहीं तो सर्वत्र आरम्भ-हिंसाका प्रसरता पूर कितना बढ़ जाता । खयाल करना चाहिये कि सामान्य तौरसे यह कहनेपर कि "अमुक देशको लूट लेंगे-चौपट कर डालेंगे, " उस देशके लोगोंको कितनी बडी भारी फिक्र जाग उठेगी ? भले ही पीछे सारे देशको न लूटे, किन्तु अमुक ही शहरोंको चौपट कर डालें । उसी तरह नियम रहित आदमी की तर्फसे सब क्षेत्रों में आरम्भादि पापस्थानकोंके दरवाजे खुले रहनेसे, (भले ही पीछे सब देशोंमें जाना न बन आवे, और हिंसा वगैरह न हों) उसके शिरपर पापस्थानक आ ही चुके । नियम करनेसे तो नियमके बाहर वालोंको क्लेशकष्ट नहीं मिलनेसे बराबर धर्मकी पुष्टि होती है, इसमें किसीका कुछ कहना नहीं हो सकता । जगत्को आक्रमण करता हुआ-लोभ रूपी समुद्रका वेग दिगविरति वाले आदमी से ढीला पड़ जाता है-इसमें क्या सन्देह ?। दिशाका परिमाण दो प्रकारका होता है, जल मार्ग और स्थल मार्गका । जल मार्गका इस तरह-नाव स्टीमर वगैरह जल वाहन के जरिए इतने योजन अमुक दिशामें अमुक बंदर अमुक द्वीपतक चला जाऊँ । यदि पवनके उन्माद अथवा मेहके जोरसे उलटे चले हुए जल वाहनसे कहांका कहीं चला जाऊँ, ૧૯ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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