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धर्मशिक्षा.
छठवां दिग्विरति-गुणवत.
पांच अणुव्रत बता दिये, अब इनके गुण-यानी उपकार करनेवाले तीन गुणवतों के प्रकाश करनेका अवसर है
दिग्विरति, भोगोपभोग परिमाण, और अनर्थदण्ड, ये, गुणवतके तीन भेद हैं । इनमें पहिला दिविरति व्रत, दिशा
ओंकी मर्यादा बांधनेका नाम है । उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ईशान, आग्नेय, नैत और वायव्य, इन दश दिशाओं, अथवा एक, दो, तीन दिशाओंमें गमन करनेकी मर्यादा करनी चाहिये । यह व्रत, पूर्वोक्त पांचों अणुव्रतोंका अच्छा उपकार करता है, जैसे कि दिशाओंमें अमुक हद तक जानेकी प्रतिज्ञा कर ली, तो हद्दसे बाहर, गमनागमनके अभाव हो जानेसे अपनी तर्फसे वहां के जीवोंकी हिंसा होनी बंद हो गई, यही प्राणातिपात विरमण व्रतकी पुष्टि हुई । तथा नियमित क्षेत्रके बाहरके मनुष्यों के साथ मृषा भाषण करना मिट गया, यह मृषावाद विरमण व्रतको दृढता मिली। और प्रतिज्ञात हद्दके बाहरकी चीजकी चोरी करना भी रुक गया, यह अदत्तादान विरमण व्रतको उत्ते. जन मिला । नथा सौगन्दसे बाहरकी भूमीकी औरतोंके साथ वि. षय भोगका भी लोप हो गया, इससे मैथुन विरमण व्रतका उपकार हुआ । एवं नियमसे बाहर देशमें क्रय-विक्रय (खरीदना व बेचना) भी शान्त हो गया, इससे परिग्रह परिमाण व्रतका भी उत्कर्ष हुआ, इस प्रकार, दिगविरति व्रत, बडा उपकारी होनेसे श्रावकोंको खास आदरणीय है ।
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