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________________ धमाक्षा. १४७ दा करता है, उस गृहस्थको भी स्वर्गमें निरवधि सम्पदाएँ मिलती हैं, इस लिये इधर उधर लोभान्ध बनकर भागाभाग नहीं करना अच्छा है । संतोष रक्खो ! जो तुम्हारी तकदीर का होगा, वह किसी हालतमें दूसरेके हाथ नहीं आ सकता । जो तुम्हारा है, वह तुम्हारा ही है, कभी न कभी तुम्हींको मिल जायगा, धीरज रक्खो ! चपलता मत करो ! स्थिरतासे सोचोगे तो नौ निधियाँ तुम्हारे पास ही हैं मगर चापलसे अंधे बने हुए की नजरमें नहीं आती, इस लिये चपलता प्रकृतिको छोड, धर्मको हृदय कमलमें बैठाओ !, और स्थिर वृत्तिसे संतोष वृत्ति पूर्वक यथोचित व्यापार-धंधेका प्रबन्ध करो और इसीसे आनन्द पूर्वक जिन्दगीको इस कदर गुजारो कि परलोकमें भी निर्मल सम्पदाएँ मिलती रहें । सातवाँ भोगोपभोग परिमाण गुणवत. भोग व उपभोग वस्तुओंका परिमाण करना, उसे भो. गोपभोग परिमाण व्रत कहते हैं। भोग, एक ही बार भोगने योग्य-अनाज ताम्बुल तेल अत्तर वगैरह चीजोंको कहते हैं । उपभोग, बार बार भोगने योग्य-वस्त्र गहने घर बाग औरत वगैरह चीजें हैं। इन दोनों का परिमाण करना यह सातवां गुणव्रत है । जो जो चीजें काबिल भोगने के हैं, उनका परिमाण करने और भोगने अयोग्य-अभक्ष्य चीजोंका परित्याग करने से इस व्रत का प्रतिपालन होता है। सचित्त वस्तुएँ यद्यपि अभक्ष्य जितनी अधम नहीं हैं. तो भी जीव संयुक्त होनेसे धर्मात्मा लोग उन्हें नहीं खाते । अगर सर्वथा सचित्तों का छोडना न बन सके तो सचित्त वस्तुओं का परिमाण करना चाहिए कि इतनी सचित्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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