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धर्मशिक्षा.
___ निरपराधी पशुओंको मारना तो राक्षस कर्म है, इसमें का हना ही क्या ? । न जाने भारत माताकी तकदीरके सितारे पर किस दुर्भाग्य-राहुका आक्रमण हुआ है कि पहले जमानेमें, जो बात नहीं थी, जो घोर कर्म हम नहीं सुनते, उस घोर कर्मका प्रचार, वर्तमान जमाने में अस्खलित बह रहा है। प्रतिदिन भारतभूमिके छोटे बेटे (जानवर-पशु) कितने कतल किये जाते हैं, इसका खयाल करने पर, यह नहीं कह सकते कि भविष्यमें भारत संतानोंके लिये शारीरिक, सामाजिक, और धार्मिक संपत्तिकी झलक, जो कुछ इस वक्त है, उससे कम होती हुई कितने हिस्सेमें जाके ठहरेगी।
बहुतसे लोगोंका कहना होता है कि जैनियोंने दया दया पुकारके सारा देश लूटा दिया, पर यह बात गलत है, दयादेवीका सत्कार करनेसे देश नहीं लूटा जाता, देश, हिंसाहीसे लूटाता है; पहले जमानेमें अनाज,घी,दूध वगैरह चीजें कितनी सस्ती मिलतीथीं, बतलाईए ! आज कितने हैं उन्हें सुखसे भोगनेवाले, हमारे दौलतमंद भाई साहब, गद्दी, तकिये पर चिपक गये हुए निश्चित आनंद भोगते हैं, परंतु भारतदेवीकी प्रजा-हमारे बन्धुओंकी क्या दशा हो रही है, इसका तो खयाल ही कौन करे? इतनी दरिद्रता, इतना दुर्भाग्य, भारतमें कहाँसे, किस प्रकार, और कब पैठा ?, इसका विचार करने पर यही स्फुरण होता है कि नीति विरुद्ध, धर्म विरुद्ध प्रवृत्तिका यह जुल्म है; जबसे निःसार साहसिक्य,
और तामसिक प्रकृति ने अपना पद, भारतमाताके शिरपर पसारा तबहीसे हमारा देश, कंगाल दशा पर आया है। जैनियोंके जितने धर्मबास्त्र सम्मत आचार हैं, वे परलोकहीके सुधार करनेमें शामिल हैं, यह नहीं, बल्कि शारीरिक, सामाजिक और दैशिक अभ्युदयको भी बढानेमें, बराबर कार्मण मन्त्रप्रयोग हैं।खयाल रहे, जैनियोंकी दया
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