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धर्मशिक्षा.
जीवोंको मारना उस आदमीके लिये बडी मूर्खताको जाहिर करता है, क्योंकि विना इरादे किसीकी तरफसे किसीको अगर कुछ कष्ट पहुंचे, तो इसका प्रत्यपकार करना इन्साफसे विरुद्ध है। क्या पत्थरसे शिर फुटे हुए आदमी, पत्थरके ऊपर द्वेष करते हैं। पत्थरका प्रत्युपकार करनेके लिये-तोडने-फोडनेके लिये पत्थरके साथ युद्ध करते है ? हर्गिज नहीं। अगर कोइ पत्थर पर द्वेष करे, तो वह आदमी ही नहीं, गदहा है।
इस लिये दोनों प्रकारसे (समझपूर्वक वा योंही संयोगवश्चात्) काटनेवाले जहरी जीव, हमारे मारनेके काबिल नहीं हैं। बेशक! उन्हें मारना तबही उचित हो सकता है, जब कि एक जीवको मारनेसे दूसरा जीव समझ जाय-शिक्षा पा सके, और काटनेका स्वभाव छोड दे। मगर यह बात देखनेमें नहीं आतो, तो फिर किस उद्देशसे जहरी जीवोंको मारा जाय ? । समझिये ! काट गये जीवको मारनेसे क्या नतीजा निकालोगे !, कुछ भी नतीजा अगर नहीं निकल सकता, तो फिजूल दूसरे दुबैलोंकी जान निकालनी, यह बाह्यातपन नहीं तो और क्या ?।
___ वास्तवमें न्यायकी नजरसे तो सृष्टिका निर्माता (बनानेवाला) कोई भी नहीं है, यानी यह जगत् ईश्वरका रचा हुआ नहीं है। सभी प्राणी निज निज कर्मके प्रभावसे विविध शरीरको लेते हुए संसारवनमें घूमा करते हैं, इसलिये हमें चाहिये कि बडे जीवोंके ऊपर दया दृष्टि रखा करें। अपराधी भी उन्हींको कष्ट देना अनुचित नहीं समझा जाता है कि जिससे आवश्यक प्रतिफल निकल सकता हो, मगर जानवरोंका वध करनेसे तो कुछभी प्रतिफल दिखाई नहीं देता, तो फिर, उनकी तरफसे अपनेको कुछ . कष्ट भी क्यों न पहुँचे ?, उन्हें क्यों मारना चाहिये ।
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