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पशिक्षा वगैरह सभी प्रवृत्तियाँ विवेक युक्त हैं, क्या पहले जैनी राजा कोई हुआही नही!, अथवा तो उसने राज्य प्रतिपालन निमित्त-प्रजा संरक्षण निमित्त, शत्रुके साथ रण समारोहमें डर खाया--संकोच खाया ?, नहीं, अपार कोडाकोडी वर्षोंसे भरतचक्रवर्ति,बाहुबलजी, सगरचक्रवर्ती वगैरह बहुत जैनी राजा हुए, जिन्होंने साठ हजार वर्षतक, पद खंड-भरतक्षेत्रको साधनेके लिये मुसाफिरी की, और वर्षोंके वर्षों तक, बडा भयङ्कर युद्ध मचाया; इतनी दूरका क्या काम ?, नजदीकहीका खयाल करें, कृष्ण वासुदेव, श्रेणिकराजा, कुमारपाल राजा वगैरह हजारों राजाओंने, प्रजा संरक्षण निमित्त, शत्रुओंके साथ बराबर रणसंग्रामका सामना किया, जो कि जैनी परम धर्मात्मा थे, मगर खयाल रहे कि फिजूल झघडा रगडाना, व्यर्थ फिसाद बढाना, यह अच्छा नहीं, और इसीका, वर्तमानमें जो कुछ हम सह रहे हैं,प्रतिफल है, इस लिये गृहस्थलोग, गृहस्थ धर्म, और साधुजन साधुधर्मके मुताबिक अवश्य दया पालते रहें। हरएक आरम्भके काममें, यतना-उपयोग पूर्वक प्रवृत्ति करना, यह दया देवीकी अव्वल उपासना है, विना दामका यह धर्म, किस सज्जनको न रुचेगा ?, बैठो, उठो, सोओ, खाओ, पीओ, चलो. कोई भी काम करो, पर कोई जीव, सूक्ष्म वा बडा, मरने न पावे, इसका खयाल जरूर रखना चाहिये, ऐसी महा मङ्गलमयी महा कल्याण करी दया पालनेमें, जब कुछभी शारीरिक परिश्रम उठाना नहीं पड़ता, और फूटी पाईका खर्चभी नहीं होता, तो फिर इस व्रतके आदर करनेमें उदासीन क्यों होना चाहिये, धर्ममाता-दयाके अङ्गोंकी परिचर्या कर धर्मात्मा क्यों न होना चाहिये ?, क्या फिर ऐसी धर्म सामग्री मिलनी आप मुलभ समझते हैं ?, क्या धर्म विनाभी भविष्यमें सुख सम्पदा की प्राप्तिके मजबूत विश्वासमें आप झुल रहे हैं, अगर यही बात
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