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धर्मशिक्षा. दे के जीव दया पूर्वक करोगे, तो कोई पापका बन्ध नहीं होगा। खूब उपयोगसे काम करते हुए पुरुषसे, अगर अशक्य परिहार कुछ हिंसा हो भी जाय, तो उससे हिंसाका पातक, उस अप्रमादी पुरुषको नहीं लग सकता। विना खयाल, उन्मत्त चेष्टा करते हुए आदमीसे, अगर जीवहिंसा न भी हो, तो भी उस प्रमादी आदमीको हिंसा लग चुकी।
जिनके हिसाबसे शरीर व जीव, एकान्त भिन्न (बिलकुल जुदे) हैं उनके मतसे, शरीर नष्ट होने पर भी जीवको हिंसा, नहीं बननेसे न लगेगी। जिनके अभिप्रायसे शरीर व जीव, बिलकुल एक ही हैं, उनके विचारसे, शरीर नष्ट होजानेसे सुतरां जीव नष्ट हो गया, तो परलोक आदि सब राखमें मिल जायँगे, इसलिये शरीरसे जीवको कथञ्चित् भिन्न, अभिन्न मानना चाहिये ता कि शरीरका नाश होने पर भी जीवको पीडा-तकलीफ आदि बन सकें, और यही हिंसा है, क्योंकि सर्वथा जीबका नाश तो होता ही नहीं, परंतु पूर्व पूर्व योनि-गतिको छोड नई नई गतिओंमें जीवका जो संचरना होता है, अर्थात् एक एक शरीरको छोड दूसरे दूसरे शरीरको जो धारण करना पडता है, उसीको, अगर जीवका नाश हुआ कहें तो कोई हर्जकी बात नहीं इसीसे अक्लमंद लोग शीघ्र समझ सकते कि जीव नित्या-नित्य है, यानी एकान्त नित्य नहीं, और एकान्त अनित्य भी नहीं, क्यों कि जीव का जीवतत्व-स्वरूप कभी नष्ट न होने के कारण, जीव नित्य है, और भिन्न भिन्न शरीरको धारण करनेसे जीवके स्वभाव में बहुत कुछ फेरफार हमेशा होता रहता है, इसीसे जीव अनित्यभी सिद्ध है। इससे यह स्फुट हुआ कि जिसके होते, दुःखकी उत्पत्ति, मनका क्लेश, और उस मनुष्यत्व आदि पर्यायका क्षय होता है, वह हिंसा, बुद्धिमानोंको प्रयत्नसे वर्जनी चाहिये ।
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