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धर्मशिक्षा. मग्रीका सूत्रधार, धर्म-अधर्म ही है, और इन्हीं दो चक्रोंसे संसार रथका सदातन चलना रहता है, अतः सुखार्थी पुरुष, धमका प्रथम मर्म, दयाको अपने कण्ठका गहना बनावें, दयाको अपना कण्ठालङ्कार, नेत्रोंकी कनीनिका, और मस्तकका मुकुट (सिरताज ) समझे ।
कितने ही गवार लोग, जान बुझके मक्खी, जू वगैरहको मार देते हैं, न जाने इससे इनके हाथमें क्या आता होगा ?। आदमी जब दूध, घी, मिष्टान्न खा के अपने शरीरको सोनासा खूबसूरत बनाते हैं, तो बेचारी मक्खियाँ, अपने शरीरपर बैठ, थोडासा रस पीवें, तो इतने मात्रमें उन्हें मार देना यह कैसी अज्ञानता? क्या वह, प्राणी नहीं है, क्या उसे मारनेसे हिंसा दोष नहीं लगता। अगर उसका अपने शरीरपर बैठना असह्य मालूम पडता हो, तो बेशक! अवश्य उसे उडा देना चाहिये । शरीरको गन्दामेला-अपवित्र रखना, यह अच्छा नहीं, शरीरकी शुद्धिसे गृहस्थोंका मन भी कुछ निर्मल सा हो जाता है। साधुजन भी बहाँ तक मलिनता और गन्दाफ्न नहीं रखते हैं कि अपने बदन वा कपडेपर क्षुद्र जीव पैदा हो जायँ, परंतु कहनेका मतलब यह है कि क्षुद्र जीव, मारने क्यों चाहिये । कोई क्षुद्र जीव अपने बदन वा कपडे पर बैठ गया हो, तो उसे, धीरे धीरे मरने न पावे, इस तरह हाथमें ले कर बाहर रख देना चाहिये । महानुभावो! धर्म करनेकी मर्यादा मनके ताल्लुक है, जहाँ मनका बाबर खयाल नहीं, वह काम भी अच्छा नहीं होता ।. धर्मका कोई रूप रङ्ग नहीं है, धर्म, मनके उपयोगमें बैठा है । जो आदमी हर काममें बराबर उपयोग ( खयाल ) रखता रहता है, उसको धर्मकी योग्यता प्राप्त हो गई समझो ! सब कुछ काम करो, मगर खयालसे करोगे, अर्थात् कोई जीव मरने न पावे, ऐसा ध्यान
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