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धर्मशिक्षा. चाहिये कि धर्म ही, सुखके और (बाह्य-गौण) साधनोंका अग्रेसर अफसर है। यही, सुखको जन्म देनेवाला है, इसे छोडकर
और कोई उपाय सुखके लिये जो खोजना है, सो जलपानके लिये, स्वादु जलसे भरे हुए प्रत्यक्ष तालावको छोड मृगतृष्णाकी तरफ दौडना है।
क्या बड़ा कुतुहल है कि लोग, धर्मका फल, सुखको तो बराबर चाहते हैं, मगर धर्मको नहीं चाहते ?, इससे बढकर और क्या मूर्खता बतावे कि आमको तो बहुत चाहते हैं, मगर आमवृक्षको उखाड देते हैं। और भी देखो! पापका फल, दुःखको कोई भी नहीं चाहता, मगर पापकर्ममें तो सदा ही कमर कसे हुए रहते हैं, यह कितना अज्ञान, विषफलको तो नहीं चाहते, पर विषवृक्षको बढानेकी कोशिश करते रहते हैं।
साँप, बिच्छू, शेर वगैरहसे हमेशा हम बचनेके खयालमें रहते हैं ; हम समझते हैं कि ये जीव, हमें काटने पर बहुत तकलीफ देते हैं, इसीसे, इनके झालमें पडनेका डर हमेशा हमें रहता है, मगर समझना चाहिये कि जैसे इन्हें दुःखदायक समझ कर अपने सङ्ग में नहीं रखते, वैसे ही अधर्म भी जब सबसे बढकर दुःख देने वाला है, तो फिर उसे क्यों न छोडना चाहिये ?, अपना बड़ा शत्रु, अपना सिर काटने वाला, अपनेको अनादि कालसे दुःख-दावानल पर खूब रडाने वाला, अगर कोई है, तो वही अधर्म-पाप कर्म है। वास्तवमें अगर कहा जाय, तो यही तक्व है कि साँप, बिच्छू, कोई, स्वतन्त्र हो नहीं काट सकता, जिस. पर अधर्मका बादल धूम रहा है, उसी अधर्मी पर तरह तरहकी विपत्तियाँ बुंबारव करती हुई दौडी आती है, पुण्यात्माओंके पुण्य तेजसे तो साँपभी पुष्पमाला हो जाता है, इस लिये यह सिद्धान्त, पुष्ट श्रद्धामें लाना चाहिये कि सुख-दुःखकी बाह्य सा
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