________________
धर्मशिक्षा
૧૮૧ प्राणिओं को धर्म ही शान्तिदाता है । अपार भीषण भव जंगलमें सहारा देनेवाला चौकीदार धर्म ही है। बदौलत धर्मकी दौलत प्राप्त होने पर भोगासक्त होना-विषयानन्दमें मग्न रहना और धर्मकी थोडी सी भी सम्हाल न लेना यह कैसी और कितनी क्षुद्र त्ति ? । विषयों के अनन्य अनुचर बने हुए प्राणी ऐसा। एक दिन जरूर पायेंगे कि उन्हें विषयभोग छोडना होगा जब यही बात है तो फिर यही चाहिये कि विषय अपने को थप्पड दे के न जायँ, किन्तु अपने ही विषयों को तिरस्कार कर छोड दें। यह खयाल रक्खो कि" अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषया वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममूनु ? । व्रजन्तः स्वातन्त्र्याद् अतुलपरितापाय मनसः
स्वयं त्यक्ता ह्येते शिवसुखमनन्तं विदधति”॥१॥ अर्थ:
विषय चिरकाल तक भोगे हुए भी एक दिन अवश्य चले जायेंगे, तो फिर मनुष्य ही उन्हें क्यों नहीं छोड देता-वि. षयों से तिरस्कृत होने के पहले ही उन्हें क्यों नहीं हटा देता ? । जब कि विषयों के तिरस्कार से या हमारे तिरस्कार से विषयों का व हमारा वियोग होनेवाला है ही है-दोनों में से एक प्रकार से हमारा व विषयों का वियोग होना सिद्ध ही है तो फिर विषयों को हम ही क्यों न छोड दें ?। विषयों की तर्फसे वियोग होने के पहले ही हमारी तर्फ से विषयों का वियोग होना चाहिए-विषय हट जाने चाहिएँ। फर्क अगर यह मालूम पडता हो कि “जहांतक विषय सामग्री मौजूद है, वहांतक विषयानन्द क्यों न भोगे?, वि.
२४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com