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धर्मशिक्षा. का दुर्व्यसन नहीं छोडते, वे धर्मके सच्चे प्रेमी ही नहीं हैं । धर्म, धर्म, कहनेसे धर्मात्मा नहीं बन सकते, किंतु धर्मकी क्रियाका, यथा योग्य आदर करनेसे धर्मात्मा बनते हैं। जो अज्ञानी कहते हैं कि हमें धर्मात्मा नहीं बनना है, तो उन्हें पापात्मा ही रहने देना चाहिये, धर्म, कोई जबर दस्तीसे नहीं कराया जाता, जिनकी तकदीरका सितारा चमक रहा हो, वे ही सज्जन, धर्मकी सडकके मुसाफिर हो सकते हैं। जगत्में पापी लोगोंका ढेर है, पर धर्मात्मा थोडे हैं, जिनका अन्तःकरण, भीतर ही, संसारकी प्रचण्ड गर्मीके जुल्मसे संतप्त-व्याकुल होता है, वे ही, धर्मरूपी सुधाको पीनेके लिये, मुनिजनों के पास चले जाते हैं, और बड़े प्यासे होनेसे, आकण्ठ धर्म सुधाको पी कर प्रफुल्लित मुखकमल, विकस्वर रोम, और रक्त वर्णवाले बनजाते हैं । धर्मका कोई मूल्य नहीं, अगर मूल्य है भी, पर वह मूल्य, सम्राट तक महाराजाधिराजोंको नहीं मिल सकता, जब दरिद्र, कंगाल आदमी भी धर्मको खरीद कर सकता है, धर्म एक स्वमनोगम्य, अगोचर, अद्भुत, आनन्दमय, चीज है, पर उसका अनुभव--प्रकाश सबको नहीं हो सकता, इसलिये शास्त्रकारोंने, जीवों में, धर्मकी वास्तविक रोशनीको जगानेके उद्देशसे, दया, सत्यवचन वगैरह दीप शलाकाएँ प्रकाशित की है, इन्हें जो स्वीकार नहीं करते, वे, अपनी आत्मामें धर्मकी रोशनी हर्गिज नहीं जगा सकते, इसलिये दया व्रतके बाद मृषावादके परित्याग करनेका यह उपदेश चला है । तात्विक दृष्टि करने पर मृषावादके चार भेद हैं, भूतनिन्हव १, अभूतोद्भावन, अर्थान्तर ३, और गहरे ४। उनमें प्रथम भूतनिन्हव, यानी सद्भुत पदार्थका अपलाप करना (नहीं है, ऐसा कहदेना)। जैसे, आत्मा नहीं, पुण्य नहीं, पाप नहीं, परलोक नहीं, मोक्ष नहीं, वगैरह । दूसरा अभूतोद्भावन अर्थात् असद्रूपको मान लेना, जैसे,
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