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धर्मशिक्षा.
दूसरा मृषावाद विरमण व्रत
किसी भी वक्त मृषावाद-असत्य वचन नहीं बोलना चाहिये, समझो ! कि मृषावाद बोलनेका प्रयोजन ही क्या है ?, क्या सत्य वचन बोलनेसे कोई शिर काट लेता है ?, शिर भी क्यों न काट ले ?, मरना कितनी बार है ?, एकवार जब मरना ही है, तो फिर मरनेसे डरना क्यों ?, अधर्मका पल्ला पकडकर जीना अच्छा, या धर्म कर, अर्थात् धर्मके प्रतिपालनके प्रसङ्गमें मरना अच्छा ?; इस जीवनका थोडासा आराम उठानेके लिये हम जो असत्य भाषा बोलते हैं, तो वह आराम-वह जीवनकी मौज क्या कायम रहेगी ?, हर्गिज नहीं, झूठ बोलो :, या सच बोलो !, यह जीवन चला जानेवाला है, इसमें कोई शक नहीं, जब यही बात है, तो फिर सच बोलकर धर्म ही का उपार्जन क्यों न करें, ता कि परलोकमें सुख सम्पदाएँतो मिले; जो आदमी असत्य बोलता है, उस आदमीका व्यवहारमें, कोई, विश्वास नहीं करता, असत्य बचनसे लघुता, निन्दा, जगत्में पसरती है, और, " अज शब्दका अर्थ बकरा है" इतने ही मात्र असत्य वचनसे वसुराजाकी तरह नरकगति होती है। बुद्धिमानोंको चाहिये कि प्रमादसे भी मिथ्या भाषण न करें । जिससे, प्रचण्ड पवनसे, महा वृक्षोंकी तरह, कल्याणके खम्भे थी चूर्ण हो जाते हैं, वह मृषावाद, भयङ्कर वेतालकी तरह प्राणीयोंके सब पुण्योंको लुकमे बनाता हुआ, कैसे आदरणीय हो सकता है ?। असत्य वचनसे, वैर, विरोध, झबडा, अविश्वास, पश्चात्ताप, और राजासे अपमान, वगैरह बहुत दोष उत्पन्न होते हैं, यह बात, आंखोंके सामने बनती हुई सबको विदित होने पर भी, जो अज्ञानी, पद पदमें मृषावाद
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