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________________ धर्मशिक्षा लोग, दुकान पर बैठे बैठे माल बेचते हैं, वैसे ही उपदेशक महाशय, धर्मका माल बेचते हैं, जिनकी ईच्छा होगी, जो माल देख खुश होंगे, वे ही माल को स्वीकारेंगे, मगर मालके यथायोग्य गुणोंकी तारीफ तो अवश्य करनी चाहिये, और लोकमें करते भी हैं। धर्मरूपी माल सबके लिये ग्रहण करनेके योग्य है, इसलिये सबके आगे सामान्य तया धर्म ग्रहण करनेका ढंढोरा पिटवाते हैं, किंतु धर्म प्राप्त करना, सबको शक्य नहीं, इसलिये सब प्राणी, धर्म नहीं स्वीकार सकते । दुकान, यदि की जाय, तो ग्राहक लोग आ सकते, अन्यथा नहीं, उसी तरह धर्मका उपदेश अगर किया जाय, तो अलबत्ते किन्हीं लोगोंको कुछ न कुछ फायदा जरूर हो सकता है, इसीलिये, गृहस्थ धर्म-समकीत मूल बारह व्रतोंमें, इस चौथे ब्रह्मचर्य व्रतके उपदेश करनेका प्रसङ्ग आया है। अगर सब, ब्रह्मचारी-साधु हो जाय, तो उनके लिये तालाव, धी, और वृक्षके पत्र, पुडी होने को तय्यार ही बैठे हैं, यदि संसारका अभ्युदय, ऐसी पराकाष्ठापर आ जाय, तो क्या ही अच्छा हो ?, मगर ऐसी सम्भावनाएँ-ऐसी कल्पनाएँ जो करनी हैं, वे, मानो ! अफीमके नशेमें आके ठंढे पहरमें ठंढी ठंढी बातें मारनी हैं। अगर सर्वथा ब्रह्मचर्यका पालना न हो सके, तो अपनी स्त्री में सन्तोप बुद्धि रखकर, दूसरी स्त्रियों के साथ विषय चेष्टासे विराम लेना--दूर रहना भी देशतः ब्रह्मचर्य ही है। जो लोग, सब जगह अपने वीर्यको वरसाते रहते हैं, वे आखिरमें नपुंसक माय बन जाते हैं, जिस आधारपर, हमारा दिमाग, हमारी मनोतिका प्रसार, और हमारा शारीरिक बल ठहरा है, उसी को मूलसे उखाड देना, यह कितनी मूर्खता, और कितना आत्मघात ?। हमारी वार्त्तमानिक भारतदशा पर जब खयाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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