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जोंको जो न मानता हो, वही नास्तिक है, उसीमें अन्वर्थ नास्तिक शब्दका व्यवहार हो सकता है । इतनी छोटीसी भी बात स्वामिजीके ध्यानमें नहीं थी, यही इनकी विद्वत्ताका नमूना देख लीजिए। जैन दर्शनमें जीव, पुण्य, पाप, परलोक, और मोक्ष वगैरहका जैसा बयान किया है, उसका स्वल्प बिन्दु आगे पाठकोंके सन्मुख अ. स्थित करेंगे, ताकि लोग समझ सकें कि आस्तिक्य की सच्ची सीमा अगर कहां ही भी विश्रान्ति लेती है, तो वह जैनदर्शन ही है।
वैदिकदर्शनोंसे जैनदर्शनमें जमीन आस्मान जितना फरक होने में अगर कोई भी प्रधान कारण है, तो स्याद्वाद-सप्तभंगी है। इसीसे वैदिक और जैनदर्शनके बीचमें पहाड जितना अन्तर रह जाता है, जब यह बात पक्की है, तो सोचो ! कि वही जमीन आस्मान जितना फरक करनेवाला हेतु, जैन और बौद्ध दर्शनके बीचमें क्या नहीं पडा है ?, क्या उसे कौएं खागये हैं । जब बौद्धाचार्य, स्यामादको बडी क्रूर नजरसे देखते हैं, तो फिर वैदिक दर्शनोंकी तरह बौद्धदर्शनभी जैनदर्शनसे हजारों कोश दूर ही क्यों न कहा जाय ? । स्याद्वाद क्या चीज है ? इस बातको सूक्ष्म नजरसे स्वामीजी यदि जानते होते, और बौद्ध दर्शनका शास्त्र एकभी थोडासा पढे होते, तो स्वामीजीकी इतनी अज्ञानता जगत् जाहिरमें नहीं आती। ___ जैनदर्शन और बौद्धदर्शन एक नहीं है, इस विषयमें स्याद्वाद नयही जब जोर शोरसे सिंहनाद कर रहा है, तो अल्पज्ञोंके लिखे हुए ऊटपटांग इतिहासका खरनाद कौन अक्लमंद सुनेगा ?1 याद रहे कि एक दो छोटीसी बातें मिलने पर दो चीजें, एक कभी नहीं मानी जा सकतीं ।
बौछदर्शनका प्रणेता बुद्धदेव, जब अपूर्णज्ञानी था, तो
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