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धर्मशिक्षा.
शून्यवाद अगर सच्चा हो, तो पत्थर वा वज्र, कोई भी आकाशसे क्यों न गिरे ? डरना क्यों चाहिये ?, गिरता हुआ शून्यरूप वज्र, हमें क्या कुछ कर सकता है ? मगर नहीं, ये सब बौद्धोंके विचार, प्रलाप मात्र हैं, इनसे तो फिर भी वेदानुयायी, छोड ब्रह्मवादी, दर्शन कुछ अच्छे हैं, जो कि इनकी तरह खुली आँखोंमें एकदम भरमूठी धूल नहीं फेंकते * ।
स्वामी दयानन्दजी अपने सत्यार्थप्रकाशमें लिखते हैं कि जैन और बौद्ध दर्शन, समान हैं, क्योंकि जैनदर्शनकी तरह बौद्ध दर्शन भी स्याद्वाद-सप्तभंगीको मान देता है । मगर स्वामीजीका यह कथन सरासर झूठ है । सिवाय जैन दर्शन, किसी दर्शनमें जा के निगाह कीजिये !, और सब दर्शनोंके ग्रन्थ, पत्र उलट पलट करके बड़ी सावधानतासे देखिये !, हर्गिज यह बात नहीं मिल सकती कि जैनदर्शनसे अतिरिक्त मतवालोंने स्याद्वाद सिद्धान्तके सत्कार करनेका सौभाग्य प्राप्त किया हो । स्वामीजीने तो क्षुद्र द्वेषानल जगाकर जैनियोंको ऊपर, नास्तिक शब्दका व्यवहार तक, निन्दा वर्षाई है । मगर याद रहे कि निन्दकोंकी निन्दासे सत्य वस्तुके अंशमै कुछ भी आँच नहीं आती। नास्तिक कहनेसे यदिनास्तिक हो जाते होंतो बतलाईए ! दुनियाँमें, विना नास्तिक हुए कौन बचेगा?। जिस किसीको नास्तिक कहनेकी बुद्धि, स्वामीजीको हर्गिज नहीं होती, अगर व्याकरण-तद्धित सूत्रका अभ्यास किया होता । मगर हजारों प्रकारके कपट प्रपञ्चोंमें अभ्यस्त भी विद्या चली जाती है, तो फिर मुख चुम्बित विद्या की तो बात ही क्या करनी? । यह तो साधारण भी व्याकरणपाठी बालक जान सकता है कि परलोक, पुण्य, पाप वगैरह अदृष्ट ची.
* यह कयन पदार्य विद्याके अभिप्रायसे है।
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