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________________ धर्मशिक्षा. है, इसका नाम है-भ्रमज्ञान । और अज्रान्त यानी सच्चा ज्ञान वही है, जो सच्चे विषयको, अर्थात् वस्तुको वस्तुस्वरूपसे ग्रहण करे, जैसे रज्जुमें ' यह रज्जु है ' ऐसी समझ । घटको घट, कपडेको कपडा, पानीको पानी, वृक्षको वृक्ष, पुरुषको पुरुष और स्त्रीको स्त्री समझना, यह अभ्रान्त-सच्चा ज्ञान है । अभ्रान्त ज्ञानका जन्म, बाहरकी चीजोंकी सिद्धिके लिये होता है । कहांतक कहें, भ्रमज्ञान और स्वप्नज्ञान भी अन्यत्र (दूसरी जगहमें ) साक्षात् की हुयी चीजहीको विषय करता है । सर्वथा अप्रतीत वस्तुका, न स्वप्नज्ञान, न तो भ्रमज्ञान होता है, यदि सर्वथा असद्भुत चीजका स्वप्नज्ञान वा भ्रमज्ञान होना मंजूर रखते हो ! तो कहिये ! गदहेके सींगका भी स्वप्नज्ञान वा भ्रमज्ञान क्यों न होगा ? इसलिये अभ्रान्तज्ञानकी तरह वान्तज्ञान भी बाह्यवस्तुओंकी सिद्धि करने में प्रबल सबूत है, यह क्यों न माना जाय ? बस ! ज्ञानहीसे बाह्यचीजें आपही आप सिद्ध हो जाती हुई ज्ञानाद्वैत मतको उडा देती हैं ! शून्यवादि--बौद्धोंके विचार तो विना शिर-पैरके आपही आप धूलीमें लेट जाते हैं। शून्य--वादको साधते हुए बौद्ध, अपनी वाक्य प्रणालीको अगर शून्य ही कहेंगे, यानी 'हमारा वचन कुछ चीज नहीं है। ऐसा स्वीकार करेंगे, तो कौन विद्वान् आशा रख सकता है कि उनके शून्य वचनोंसे शून्यवाद सिद्ध हो जाय ?। अगर च अपने वचनोंको सद्भूत मानेंगे, तब तो शून्यवाद रहा ही कहां ?। आकाशसे गिरते हुए वज्रको देख, बडे डरसे इधर उधर भागते हुए भी शून्यवादि-बौद्धने, शून्यवाद--सिद्धांतको कायम किया, यह कितना आश्चर्य ? । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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