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धर्मशिक्षा.
१५१ दुर्मति आदमी की बुद्धि, शाकिनीकी भांति प्रतिप्राणीको मारनेमें प्रवर्तती है। जो मूर्ख लोग, अच्छे अच्छे उमदे दिव्य भोज्यखाद्य पदार्थ रहतेपर भी मांस खानेमें प्रवर्तते हैं, वे सचमुच अमृत रसको छोड कर विष (जहर) खानेमें प्रवर्तते हैं । मांस भक्षणका क्या ज्यादह दोष बता ? । मांस भक्षक नराधम यह जान ही नहीं सकता कि “निर्दयको धर्म नहीं होता, और मांस भक्षी दयालु नहीं होता" । अगर यह बात मांसाशी जाने, तबभी दया धर्म का उपदेश नहीं कर सकता, क्योंकि मांस भक्षक के हृदयमें प्रायः यही स्फुरायमान रहता है कि-"मेरे जैसे सब मांस भक्षक, हो जायँ"। इसीलिये कितनेही मांसाशी उपदेशक पंडित लोग मांस नहीं खानेका उपदेश नहीं देते, किंतु " स्वयं नष्टा दुरात्मानो नाशयन्ति परानपि" इस कहावतकी सडक पर चलते हैं।
कितने ही अज्ञानी लोग तो देव पित् और अतिथि तकको भी मांस देते हैं, इनमें उनका क्या दोष निकाले ? किंतु उन भोले-लोगोंको ठगनेवाले विद्वान् ही गुनहगार हैं, देखिए ! इस बात पर सम्मति देनेवाली मनुस्मृति“क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य परोपहतमेव वा देवान् पितॄश्चार्चयित्वा खादन् मांसंन दुष्यति ॥१॥
अर्थः-खरीद कर के अथवा खुद पैदा कर के चाहे दसरे की तर्फ से उपहार में प्राप्त हुआ मांस, देवताओं, वा पित लोगों को चढाकर खाता हुआ मनुष्य दोषी नहीं हो सकता।
मगर यह बात अज्ञानता से भरी है । खुद ही को प्राणि घात से पैदा होनेवाला मांस खाना निन्दनीय कर्म है, तो देवता
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