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धर्मशिक्षा.
अपने ही स्वार्थमें नुकशान हुआ देख, जो, चोरीसे विराम लेता है, वह, फिर भी धर्मकी सडक पर वराबर पहुँच सकता है, और इस लोक, परलोकका सुधार कर सकता है । समझो ! कि एक जीवको कतल करनेमें उसको क्षणभर ही वेदना--पीडा होती है, मगर चोरी करनेसे, जिसका धन लुटाया होगा, उस अकेलेको क्या?, सारे घरको, सारे जीवन तक दुःख हुआ करेगा, इसलिये हिंसा करनेवालेसे भी चोरो करनेवाला बडा दुष्ट है, इसमें क्या कहना? । चौरीरूप पापक्षके, वध, बन्ध, वगैरह, इहलोक सम्बन्धी, और परलोकमें नरक वेदना, फल है। चोरी करनेवालेको, मित्र, पुत्र, कलत्र, (स्त्री) भ्राता, (भाई) माता, पिता वगैरह, प्रेम नजरसे नहीं देखते, और उसका सङ्ग भी नहीं करते, क्योंकि चोरको, स्थान देनेवाला, अन्न देनेवाला, और उसका सङ्गी भी, चोरकी तरह राजाकी सजाका पात्र होता है, इसलिये जो महाशय, चोरी. से दूर रहते हैं, उनको स्वयं लक्ष्मीदेवी समीप आके वरती है। संतोष रखनेवाले धर्मात्माओंके अनर्थ, दूर हटजाते हैं, और उनकी, कुन्द कुसुमकी भांति विशुद्ध उज्ज्वल कीर्ति पसरती है, तथा स्वर्गके सुख, उनके करकमलमें आके खेला करते हैं ।
बहत्तर है, अनिकी शिखाका पान करना, और अच्छा है, साँपके मुँहका चुम्बन करना, और उचित है, विषका आस्वाद लेना, मगर पुरुष होके-मनुष्य होके, परद्रव्यका हरण करना, यह बिलकुल बेशरम और अधमपनकी बात है । अन्याय करके पेट भरना, और इस शरीरको भला मनाना, इससे तो गलेपर छुरी फेरके मरजाना बहत्तर है । चोरी जैसा बडा अन्याय कर के अधर्मी जीवन गुजारना, इससे तो साधुवृत्तिसे धर्मात्मा बनके अपना पेट भरनेके साथ ही परलोक सुधारना कैप्ती हजार गुणी उमदा बात है? । मगर साधु होना बड़ी कठिन बात है, भूखा म
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