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________________ १०० धर्मशिक्षा. नेकी तय्यारी करते हैं, त्यों ही विजया स्त्री बोल उठी कि स्वामिनाथ ! इस कृष्णपक्षमें ब्रह्मचर्य पालनेका मुझे नियम है इसलिये इसपक्षके जानेके बाद शुक्लपक्षमें कामक्रीडा मेरेसे होगी, तब विजयशेठ भी बोले-" तब तो अपने दोनोंको हमेशा ही ब्रह्मचर्य व्रत पालना पडेगा, क्योंकि मुझे भी शुक्लपक्षमें ब्रह्मचर्य पालनेका सौगन्द है; खैर!, यह तो अच्छा ही हुआ। प्राणांत कष्टमें भी नियमका घात नहीं करना चाहिये । वास्तवमें तो भोगोंमें रक्खा ही है क्या ?; गँवार आदमी ही भोगों में बावले बनते हैं। शाणे, दाने, उदार हृदयके पुरुष तो, भोगोंको दुःख ही समझते हैं, अच्छा हुआ, अमूल्य चिंतामणि-ब्रह्मचर्य धर्म, हाथमें आया, बस ! अब हमेशा अपने ब्रह्मचारी रहेंगे"। (यह भावना, विजया स्त्रीमें भी प्रतिरोम रम गई)। देखिए ! सज्जनो! दम्पतीकी मनोभावना; विवाहके पहले वे ब्रह्मचारी थे, इसमें तो कहनाही क्या? । मगर, नवीन तरुणयौवनकी प्रसरती रोशनीमें भी, विगह करके जिन्होंने कुछ भी अपना मन कलंकित न किया, सर्वथा ब्रह्मचर्य पाला, यह अद्भुत चमत्कार, किसके नेत्रोंको स्थिर नहीं कर सकता । स्त्रीके साथ सो जाना, एक ही पलंगपर दोनों, भत्ता-प्रियाको सो रहना, और ब्रह्मचर्य पालना, यह कितनी ईश्वरी शक्ति ? कितना महात्मापन? और कितनी, उनके मनोमन्दिरमें अध्यात्मयोगकी मुसलधारा वरस रही होगी?, जभी कोका क्षय हो सकता है, और मोक्ष प्राप्त हानेमें विलम्ब नहीं होता । खाते, पीते, संसारके भोग भोगते अगर मोक्ष मिल जाता, तो सब कोई मोक्षमें चले जाते । खाना, पीना, अच्छे अच्छे कपडे पहिनना, और तरुण सुन्दरीके सुवर्ण कलश जैसे पयोधरोंका मर्दन करना, चन्द्रवदनाके चन्द्रसे-मुँहसे अमृत पीना, कमललोचनाके कमलसे बड खुशबूदार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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