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धर्मशिक्षा. मुँहकी खुशबू लेना, हरिणनेत्राके प्रवाल सरीखे अधर बिम्बका चुम्बन करना, कृशोदरीके कुश उदरको हाथमें पकडना, प्राणप्रिया रमणीके पतली कमरको मूठीमें धर लेना, सुमुखीके केलवृक्षके स्तम्भ जैसे उरु स्थलपर हाथ फैलाना, और अर्धाङ्गनाके कुल अङ्गाके साथ अपने अङ्गोंको बिलकुल मिला देना-एक कर देना, इससे क्या हुआ?, यह बात तबही रुचे, यदि, जीव मात्रपर गर्जना करता यमराजा, प्राणीगणोंको लुकमे बनाता रुक जाय ।
जब हमारे शिरपर मौतका डा बज रहा है, सब जीवोंकी जीवन स्थिति स्थिर नहीं रहती, सब प्राणी, भिन्न भिन्न प्रकृतिसे प्रतिक्षण नये नये परिणाममें पलटते रहते हैं, तो उचित नहींहै कि कर भोग-रसोंमें फंस कर अपनी आत्माकी दौलतको खाक की जाय । इस संसारमें रहना कितना, अर्थात् एक भवकी स्थिति कितनी ? , अव्वल तो यही शरीर, अनेक प्रकारके रोगोंका भण्डार है, तो फिर इसपर किस बुद्धिमानका मोह बढ सके ?। घुन कीडोंसे काष्टकी तरह, व्याधिओंसे, यह शरीर हमेशा सडता रहता है । ऐसा कोई समय न था, न आया, न है, न आयगा-न होगा, कि कोई प्राणी, काल-मौतको ठग कर, मरनेसे बच जाय ; क्या राजा, महाराजा, बलदेव, वासुदेव, और क्या चक्रवर्ती, और तीर्थकरभी क्या, सबके लिये सारे संसारके लिये, हमेशा मृत्युकी पुकार चला करती है, किसी न किसी पर हमेशा काल-राजाकी चिट्ठि आया करती है । संसारमें किसीको क्या ? , किन्हीं को, थोडेको क्या ? , बहुतोंको, परिमितको क्या ? , अपरिमित प्राणिको लुकमे बनाता हुआ कालराक्षस, कभी, किसीदिन, किसी समय, किसी वक्त और किसी मिनट भी विराम नहीं पाता । रूप, लावण्य, कान्ति, शरीर, धन, सभी, तृणके अग्रभागपर रहे जल बिन्दुकी तरह चपल-विनाशी
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