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________________ १०२ पशिक्षा. हैं। आज कलमें नष्ट होने वाले इस असार शरीरसे, उत्तम तपस्या यदि निकाली जाय, तो क्या उमदा बात है ? । वेही महास्मा सची तारीफके पात्र हैं, और उन्होंने इस अनित्य-असार शरीरसे आलादर्जेका फल निकाल लिया, जिनने मोक्ष-फलको देनेवाली तपस्या द्वारा भोग-पिशाचोंका देश निकाल कर दिया। वे लोग, जगत्के सिरताज बन गये, जिन्होंने अदृष्ट क. ल्याण-कामिनीका संग छोड, योग रसका आनन्द लूटा । धन्य हो ? स्थूलभद्रजी को धन्य हो ?, जिस महर्षि ने ऐसा तो आत्मिक पुरुषार्थ फैलाया, आजतक सज्जन वर्ग जिसकी परलोक गत आत्माकी तरफ बढे अचम्भेके साथ स्थिर आँखोंसे खयाल कर रहे हैं, वाह ! कलिजुग ! वाह ! तेरे को भी थप्पड लगाके स्थूलभद्र महर्षिजीने आत्मिक योगका जो प्रकाश फैलाया है, आज भी वह, जन समाजकी नजरोंको शीतलता दिये बिना नहीं रहता। क्या बतावे ?, जो स्थूलभद्र, बारह वर्षतक वेश्याके घर पर रह कर, तरह तरहके भोग भोगते रहे, बाद साधु-मुनि-योगी--महर्षिश्रमण बने, इतना ही नहीं बल्कि महर्षि हो कर, उसी वेश्याके भवनपर आके चतुर्मासा रहे; देखिए ! महाशयो !, इधर, वेश्या, तरह तरहकी इन्द्रियपोषक, हृदयोत्तेजक, कामोद्दीपक रसोई बनाके साधुजीको भिक्षा देती है, और साथ साथ अनेक प्रकारके हाव भाव-काम कटाक्ष, मदनलीला वगैरह बहुत उपाय, साधुजीको भोगमें फंसानेको किया करती है, और उधर षड् (छः) रसोंसे सुन्दर गरिष्ठ माल उडानेके साथ, सब प्रकारकी वेश्याकी काम चेष्टाएँ, स्थूलभद्रजी नजरमें ले रहे हैं, तो भी मजाल है कि - पिजीका मन, अणुमात्र भी फरके ! । बारह वर्ष तक सेवी हुई वेश्याके घरमें, साधु हो के रहना, और कामोद्दीपक भोजनको प Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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