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धर्मशिक्षा संसारका-विनाशी क्षणिक असार परिणाममें भयंकर, और विरसावसान सुख बुद्धिमान् लोग नहीं चाहते। प्रेक्षावानोंकी प्रवृत्तिका अव्वल उद्देश यही रहता है कि आत्मिक सचित्सुखको प्राप्त करना। आत्मिक सुख पानेके लिये कोशिश करनेका फर्ज प्राणी मात्र का है-इसी लिये कोशिश करके मानव जीवनकी सफलता करना मनुष्य मात्र का धर्म है, मगर कोशिश करना बडा कठिन है, खैर ! ज्यादह कोशिश न बन आवे तो दो घडी तक की सामायिक ही सही । प्रत्येक मनुष्य प्रतिदिन एक सामायिक तो जरूर ही करे । क्या दिनभर काम करनेवाला मनुष्य दो घडीका टाइम सामायिकके लिये नहीं निकाल सकता ? बराबर निकाल सके यदि धर्मकी गरज अपने दिलमें जोर मार रही हो । जितनी गरज पेट देवताकी पूजाकी होती है, जितनी गरज प्राणप्रिया
औरतकी होती है, जितनी गरज पुत्र-मित्रकी होती है, जितनी गरज लक्ष्मी देवीकी होती है, और जितनी गरज, बडाई महत्त्व इज्जत ओहदा वगैरह की होती है, उतनी ही क्यों ?, उससे आधी भी गरज अगर धर्मकी न हो तो अफसोस । संसारके कामोंमें, दिनरात जितनी फिक्र करनी होती है, उसके चौथे हिस्सेकी भी फिक्र धर्म के लिये अगर न जाग उठे, तो फिर धर्म प्यारा कहाँ रहा ? । खयाल रहे कि यदि धर्म प्यारा न हुआ, तो घर की रंडीका ही प्यार पहले नहीं ठहरेगा, क्यों कि संसारके सुखोंका भी प्रधान बीज सिवा धर्म के और कोई नहीं है । जो, धर्म को छोडकर सुख पानेकी चाहना करता है, वह मूर्ख नावको छोड समुद्र के पार पहुंचना चाहता है । वह, सुंदर भोजन रखने के योग्य सोने के थाल में राख फैकता है, जिसकी धर्म पर नजर नहीं जाती। उसने परमानन्दको प्राप्त करानेवाले अमृतको अपने पैर धोने में उड़ा दिया, जिसका दिल धर्म पर प्रेमाल न रहा।
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