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________________ ७३ धर्मशिक्षा. दुःखमें डाला ? इस लिये ऐसे प्रलाप, कानोसे बाहर ही रखने चाहिये, बिना सबूत जिस किसीकी कही हुई बात, सच्ची नहीं मानी जा सकती; दुःखी जीवोंको मार देनसे अगर पुण्य होता हो तो सुखी जीवोंको मारनेसे भी धर्म क्यों कर न होगा ?, क्योंकि सुखी जीवभी, सुखके उन्मादमें पाप ही किया करते हैं, इसलिये उन्हें मार देनेसे, वे पाप कर्मसे बच जायँगे; अतः एसे कुचोद्य कुतर्क, जहाँ तहाँ नहीं अडाने चाहिये। धर्मका विचार, सुस्थ हृदयसे सुशास्त्रोंके आधार पर करनेसे धर्मका सच्चा मार्ग मिलता है । चार्वाक (नास्तिक) लोग कहते हैं कि शरीरसे जुदा कोई जीव ही नहीं, फिर दयाकी क्या बात करनी?, मगर यह कहना बिलकुल प्रमाणसे बाधित है, किस सबूत से चार्वाक लोग जीवका निषेध करते होंगे? यह पहले बतायें, क्या प्रत्यक्ष प्रमाणसे?, नहीं, प्रत्यक्ष प्रमाण, तो उलटा शरीरसे अतिरिक्त आत्माको सिद्ध करता है, खयाल.करें कि सुख दुःखादिका "मैं सुखी, मैं दुःखो" यह जो आन्तरिक भान होता है, इसमें 'मैं' करके किसका ग्रहण होगा? क्या शरीरका? नहीं, शरीर तो भूत समूहात्मक है, समुदायमें 'मैं' ऐसी एक कर्तृक एकाकार प्रतीति नहीं हो सकती, बस! यही प्रतीति, भूत समूहात्मक शरीर, और पांच इन्द्रियोंके अतिरिक्त, ज्ञानयन, चैतन्यस्वरूप अपौलिक जीवको साबीत करती है । अगर चे शरीरको ज्ञान सुख वगैरहका आश्रय माना जाय, तो मृतक (लोथ) को भी इनका आश्रय मानना पडेगा, जब शरीर ही ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न वगैरहका अधिकरण है, तो फिर शरीरत्व समान रहते, मृतकको क्यों जला देना चाहिये?, कहोगे ! प्राण नहीं रहनेसे काष्ट जैसै टुंठे शरीरमें, ज्ञान ૧૦ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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