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________________ ७४ धर्मशिक्षा. वगैरह कुछ नहीं रह सकते, तो बतलाना चाहिये कि प्राणोंके संयोग-वियोग होनेका प्रयोजक कौन है ? भूतोंके विलक्षण संयोग ही को अगर प्रयोजक कहोगे, तो अन्यत्र भी, जहाँ पृथ्वी, जल, आग, वायु, का समुच्चय परस्पर परिणत हुआ है, ज्ञान वगैरह गुण पाने चाहिये, वहां भी जीव-चैतन्य व्यवहार, किससे हटेगा। यदि इन्द्रियोंको आत्मा मानी जाय, तो चक्षु इन्द्रिय नष्ट होने पर भी पहले चक्षुसे जो जो चीजें देखी गई, उनका स्मरण जो होता है, वह न होगा, क्यों होना चाहिये? चक्षु तो नष्ट हो गई, देखा था चक्षु ने, फिर चक्षु के अभावमें देखी हुई चीजका स्मरण, चक्षु को तो होवे ही कहांसे ?। दूसरी इन्द्रियाँ भी उसका स्मरण हर्गिज नहीं कर सकतीं, क्यों कि चक्षुकी देखी हुई चीजको दूसरी इन्द्रियाँ कैसे स्मरण कर सकें ? एक आदमीकी देखी हुई चीजका, उसे न देखा हुआ दूसरा आदमी क्या स्मरण कर सकता है ? कभी नहीं। मैंने देखा, मैंने सुना, मैंने छुआ, मैंने गन्ध लिया, मैंने स्वाद लिया, इन पांच इन्द्रियोंके पांचों, रूप वगैरह विषयों के ग्रहणमें, कर्ता, (विषय भोक्ता) 'मैंने' इस आकारसे जब एकही मालूम पडता है, तो फिर इन्द्रियों में जीवतत्त्व कैसे सिद्ध हो सकता है ?, अगर इन्द्रियाँ ही जीवतत्व होती, तो बतलाईए ! "जिस चीजको मैंने देखा था, उसीका इसवक्त मैं स्पर्श करता हूँ" ऐसा दर्शन, और स्पर्शन, दोनोंके एक ही कर्ता विषयक भान कैसे होता?, इस लिये भूत समूह, और इन्द्रियोंसे जुदी एक व्यक्ति, शक्ति, अवश्य माननी पडेगी, और वही आत्मा, जीव, चेतन, ज्ञानधन वगैरह पर्याय नामोंका शक्य, अभिधेय, वाच्यार्थ है । __ अनुमान प्रमाणसे भी आत्मा बराबर सिद्ध है, मगर अ. नुमान तो नास्तिकों को सम्मत नहीं, इसलिये अनुमानका प्रयोग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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