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धर्मशिक्षा.
हैं, अन । रातको नहीं सचमुच सांगा है। दिन व राता
में पन्द्रह वाले लोग आधे पच्छ विनाका
__ जीवों के ढेरसे संबंध रखते हुए रात्रिभोजनको करनेवाले लोगोंको अधमोंके शुमारमें शास्त्रकारोंने गिना है। दिन व रातको जो खाता ही रहता है, वह सचमुच सींग और पुच्छ विनाका पशु ही है। रातको नहीं खानेवाले लोग आधे दिन के उपवासी हैं, अतएव महीनेमें पन्द्रह दिवस के, वर्षमें आधे वर्ष के, और सारे जीवन में आधे जीवनमा के उपवासी है, यह विना शास्त्र प्रमाण के स्वानुभव सिद्ध रात्रिभोजन परिहारका फल है । रात्रिभोजनके पापका दुरन्त फल-उल्लू कौआ बिल्ली साँप सुअर गिद्ध बिच्छू वगैरह भयंकर दुर्गतियाँ हैं।
देखिए! मार्कण्डऋषि क्या कह रहे हैं“अस्तं गते दिवानाथे आपो रुधिरमुच्यते अन्नं मांससमं प्रोक्तं मार्कण्डेन महर्षिणा" ॥१॥
अर्थः-दिवानाथ (सूर्य) अस्त हुआ कि पानी रुधिर के समान हुआ, और अन्न मांस के समान भया, यह बात माकण्ड ऋषिने कही है।
और भी"मृते स्वजनमात्रेपि जायते सूतकं किल । अस्तं गते दिवानाथे भोजनं क्रियते कथम् ॥१॥
अर्थ:-स्वजन-स्ववर्गीय मनुष्य मात्र के मर जाने पर भी सूतक लगता है, तो भला यह तो दिवानाथ जगत्की चक्षु लोक बान्धव है, तो इसके अस्त हो जाने पर खाना कैसे हो सकता है ? इसलिये रात्रिभोजन का परित्याग करके दिनभरके भोजनसे संतोषी रहना, यह मानव जीवन के सुधारका एक अंग है । धन्य है उन महात्माओंको, जो दिन के प्रारम्भ की दो
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