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________________ ९० धर्माशक्षा. रण, जेलमें पकडा जाना, और इन्द्रियका छेद वगैरह, भयङ्कर आपदाएँ उठानेके साथ परलोकमें घोर नरकका अतिथि होना पडता है। अपनी स्त्रीके रक्षण करनेमें निरन्तर प्रयत्न करता हुआ पुरुष, अपनी आत्मामें अपनी स्त्रीपर शंकाके मारे हमेशा क्लेश पाता रहता है, तो ऐसा ही दुःख, सबको समझकर किसीकी स्त्रीके साथ बदमाशी नहीं करनी चाहिये । समझो! कि परस्त्री गमनका दुरन्त फल तो दूर रहा, मगर परस्त्रीकी तरफ रमण करनेका मनोरथ करनेसे भी रावण की तरह इस जन्ममें बडी बुरी हालतसे मरना पडता है, इतनाहो क्यों ?, परलोकमें भी नरककी कुम्भीमें जलना पडता है। रावण जैसे महा पराक्रमी, त्रिलोकीके कण्टक राजे भी, परनारीके गमन करनेकी इच्छामात्रसे अपने कुलका क्षय कर गये, तो पामरोंकी क्या बात?। लावण्यकी लहरिओंसे लहरती, सौन्दर्यकी काञ्चनसी किरणोंसे दमकती, महा विदुषी, और बडी कलावन्ती ही परस्त्री क्यों न हो ?, मगर उसका सङ्ग शेठ सुदर्शनकी तरह कोई अक्लमंद नहीं करता। परस्त्रीका आलिङ्गन करना मूखों ही का काम है। जिसके हृदय भवनसे विवेक-चोपदारका देशनिकाल हो गया हो, जिसके मनोमंदिरमें विवेक-प्रदीप शान्त हो गया हो, जिसकी आत्मभूमीमें विवेक-द्वारपाल निद्रामें फँस गया हो, वही दुभर्भाग्य आदमी, परनारीका षण्ड बनता है । समझ लो ! कि उसकी किस्मतको पाप-बादलने घेर ली, जो परस्त्रीके गमन करनेसे विराम नहीं लेता | उसकी तकदीरके बारह बज गये, जिसका शरीर परनारीसे मलिन हुआ। उसके बुरे दिन आ गये, जिसने परदारागमनमें फँस, राजकीय, और ईश्वरीय कानूनों पर आग दी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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