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________________ धर्मशिक्षा. तक लगातार चली आ रही है । ऐसा अविच्छिन्न धर्मका मूल अगर कहाँही पर पा सकते हैं, तो वह जैन सम्प्रदाय ही है। जैन जातिमें एकसे एक बढेचढे हजारों आचार्य-धुरंधर विद्वान् होने परभी, किसी अर्हद् वचनमें, किन्हीं आचार्योंका परस्पर विरोध-झघडा नहीं हुआ, यही आहेत-धर्मकी वज्रलेपायमान प्रामाणिकता-परमार्थ सत्यता झलकती है। हमें निष्पक्षपातसे यह उद्घोष किये बिदुन नहीं रहा जाता कि जैन शास्त्रोंमें जैसा निष्पक्षपात बयान है, और उसको जैसी निष्पक्षपातरीतिसें जाहिरमें लानेवाले आचार्य हुए, वैसी निष्पक्षपातता,महावीरके शासनको छोड अन्यत्र कौन कहाँ पा सकता है? । वैदिक मतमें, जैसे, बापका खंडन बेटेने किया, गुरुके वचनका खंडन चेलेने किया, वैसा उपद्रव. परमात्मा अर्हन देवके प्रवचनशासनमें, आजतक न हुआ और न सुना । मध्यस्थ दिलसे देखते हुए हमें, दोनों जगह दो बातें अद्वितीय ही पायी जाती हैं-एक इधर अर्हन देवका यथार्थ उपदेश, और उधर अन्य तीथिओंका असद आग्रह । प्रतिपक्षि विद्वानोंके समक्षमें भी जैनाचार्य, यह उदार-घो षणा करते आये हैं--अगर इश्वरकी पहचान करनी हो, तो वीतराग ही को ईश्वर समझना चाहिये, सिवाय वीतराग, और कोई ईश्वर नहीं हो सकता । एवं न्यायकी व्यवस्था भी, विना स्याद्वाद-अनेकान्तवाद, और कोई नहीं है । इसी प्रधान विषयके हजारों ग्रन्थ बनाके, जैन आचार्यों ने अपनी चमकीली विद्वचाकी रोशनी, चारों ओर छा दी है। और इसीसे हृदयमें चमत्कार पाये हुए अन्य विधानोंने भी, अपने ग्रन्थोमें, जैनाचार्योंकी जो प्रशस्ति रेखाएँ अंकितकी हैं, आजभी उन्हें, सब कोई खुले दिलसे पढ़ रहे हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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