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________________ ૧૧૨ धशिक्षा. हैन सज्जनता, न दान न गौरव, और न स्वपरका हित देखती है। निरंकुश कामिनी, पुरुष पर इतना असमंजस आचरती है, कि जो क्रुद्ध हुए शेर, सिंह, सॉप वगैरहसे भी न बन सके । प्रकट किया है दुर्मद जिन्होंने, ऐसी वनिताएं, हथनीकी तरह संतापको पैदा करने वाली हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। वह कोई मंत्र, स्मरणमें लाओ!, वह कोई देव, उपासना से प्रसन्न करो ! जिससे स्त्री पिशाची, अपने शील जीवितको ग्रस्त न करे। जो जो दुःशील, स्त्री संबंधी, शास्त्रोमें सुनते हैं, और लोकमें प्रख्यात है, वे, काम विव्हल-वनिताओंकी तर्फसे बराबर संवादित होते है। बिजली अगर स्थिर हो जाय, पवन अगर कहीं बैठ जाय, तौभी स्त्रियों के हृदयोंमें स्थिरताका अवकाश होना बडा संदिग्ध है, वगैर मंत्र तंत्रोंके भी स्त्रियोंसे चतुर लोग ठगाये जाते हैं, यह कैसी स्त्रियोंकी चतुराई !, ऐसी विद्या, जहांसे औरतें पढी होंगी, वह, ब्रह्माका भी गुरु हो, तो ना नहीं । स्त्रियोंकी मृषावाल्की बैदुषी, चतुराई, कोई अलौकिक ही मालूम पडती है कि प्रत्यक्ष भी अकृत्यों को, वे, क्षण वारमें छिपादेती हैं। पागल आदमी, लोष्ट (ढेले) को जैसे सुवर्ण समझ लेता है, वैसे मोहान्ध आदमी, स्त्री के संगसे पैदा हुए दुःखको सुख समझता है । जटी, ( जटा धारी) मुंडी, शिखी, मौनी, नग्न, वल्की, तपस्वी, और ब्रह्मा भी क्यों न हो ? , यदि वह स्त्री भोगी है-अब्रह्मचारी है, तो हमें पसंद है ही नहीं। खुजली (खाज) को शान्त करनेके इरादेसे खुजलता हुआ मनुष्य, सुख समझता है, पर वास्तवमें वह दुःखही है, उसी तरह कामके दुवार आवेशके वशीभूत हुए लोग, मैथुन क्रीडाको मुख समझते हैं, पर दर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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