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धर्मशिक्षा.
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"अर्हन् जिनः पारगतस्त्रिकालवित् क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ट्यधीश्वरः । शम्भुः स्वयम्भुर्भगवान् जगत्प्रभु
स्तीर्थंकरस्तीर्थकरो जिनेश्वरः " ॥१॥ अर्थ:_अर्हन् , जिन, पारगत, त्रिकालज्ञ, क्षीणाष्टकर्म, परमेष्ठी, अधीश्वर, शम्भु, स्वयम्भु, भगवान् , जगत्प्रभु, तीर्थकर, तीर्थकर, जिनेश्वर, स्याद्वादी, वीतराग, पुरुषोत्तम, विश्वनाथ, सर्वज्ञ, देवाघिदेव वगैरह नाम ईश्वरके हैं । नामके स्मरणद्वारा और मूर्तिके पूजनद्वारा ईश्वरकी भक्ति होती है। जो लोग मूर्तिपूजाको पसंद नहीं करते-मूर्तिपूजामें गुणप्राप्ति नहीं मानते, उनकी बड़ी भारी भूलहै, वह भूल दूसरे ग्रन्थोंसे देख लेना, यहां इसका जिक्र नहीं करते । उक्त लक्षणके ईश्वरकी उपासनामें पावंद रहना, और विपरीत लक्षणके किसीको ईश्वर न समझना यह देवविषय श्रद्धा कही जाती है।
सुगुरुदेवतत्त्वका प्रकाश करनेवाले गुरु हैं । धर्मकी पहचान करानेवाले गुरु हैं । संसारके क्लेश हटानेका उपाय बतानेवाले गुरु है। मगर गुरुकी तलाश करनी चाहिए। अच्छे-शुद्ध गुरुहीसे आत्मकल्याणका संपादन हो सकता है।
. .. गुरुके लक्षण ये हैं“ महाव्रतधरा धीरा औक्षमात्रोफ्नीविनः ।
सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरको माता" ॥१॥
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