SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मशिक्षा. १८८ "अर्हन् जिनः पारगतस्त्रिकालवित् क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ट्यधीश्वरः । शम्भुः स्वयम्भुर्भगवान् जगत्प्रभु स्तीर्थंकरस्तीर्थकरो जिनेश्वरः " ॥१॥ अर्थ:_अर्हन् , जिन, पारगत, त्रिकालज्ञ, क्षीणाष्टकर्म, परमेष्ठी, अधीश्वर, शम्भु, स्वयम्भु, भगवान् , जगत्प्रभु, तीर्थकर, तीर्थकर, जिनेश्वर, स्याद्वादी, वीतराग, पुरुषोत्तम, विश्वनाथ, सर्वज्ञ, देवाघिदेव वगैरह नाम ईश्वरके हैं । नामके स्मरणद्वारा और मूर्तिके पूजनद्वारा ईश्वरकी भक्ति होती है। जो लोग मूर्तिपूजाको पसंद नहीं करते-मूर्तिपूजामें गुणप्राप्ति नहीं मानते, उनकी बड़ी भारी भूलहै, वह भूल दूसरे ग्रन्थोंसे देख लेना, यहां इसका जिक्र नहीं करते । उक्त लक्षणके ईश्वरकी उपासनामें पावंद रहना, और विपरीत लक्षणके किसीको ईश्वर न समझना यह देवविषय श्रद्धा कही जाती है। सुगुरुदेवतत्त्वका प्रकाश करनेवाले गुरु हैं । धर्मकी पहचान करानेवाले गुरु हैं । संसारके क्लेश हटानेका उपाय बतानेवाले गुरु है। मगर गुरुकी तलाश करनी चाहिए। अच्छे-शुद्ध गुरुहीसे आत्मकल्याणका संपादन हो सकता है। . .. गुरुके लक्षण ये हैं“ महाव्रतधरा धीरा औक्षमात्रोफ्नीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरको माता" ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy