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धर्मशिक्षा.
૧૮૬ पांच महाव्रतोंको पालनेवाले धीरजवाले भिक्षासे जीवन चलानेवाले समताभावमें रहनेवाले और धर्मोपदेश देनेवालेशुद्ध धर्मकी प्रवर्जना करनेवाले गुरु हैं । ऐसे ही गुरु स्वयं संसार सागरसे तैरते हुए औरोंको भी तैरानेमें समर्थ होते हैं। भांग गांजा फूंकनेवाले द्रव्य रखनेवाले रेल इक्का गाडी घोडा वगैरह वाहनपर सवारी करनेवाले कषायोंसे भरे हुवे लोग गुरु नहीं हो सकते । पूर्वोक्त-गुरुके लक्षणोंसे विपरीत ढंगवाले गुरु नहीं हैं, किंतु साधु वेष के झूठे आडम्बर से लदे हुए होने से कुगुरु कहे जाते हैं, इनको गुरु नहीं समझना और उक्त लक्षणलक्षित सद्गुरुकी सेवा करना, यह गुरुतत्वविषयक श्रद्धा है। ... सुधर्म
परमात्मा अईन देव का बताया हआ वीतरागधर्म धर्म है । उसी पर धर्मबुद्धि रखना उसीको यथाशक्ति पालना और असर्वज्ञ कथित दोषवन्त धर्मोंको न मानना, यह धर्म विष. यक श्रद्धा है।
देव गुरु धर्म इन तीन तत्वों पर पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिये । मिथ्यात्विओंके झूठे प्रभावोंको देख वीतराग धर्म पर रत्ती. भर भी आशंका अरुचि नहीं लानी चाहिए, तब ही सम्यक्त्वका स्पर्श होगा । सम्यक्त्व के सौभाग्य रहित तपस्वि लोगों के कष्टानुष्ठान जो फल नहीं दे सकते, वह फल सम्यक्त्वशाली गृ. हस्थोंको मिलजाता है, इस लिये देवमें देव बुद्धि, गुरुमें गुरु बुद्धि, और धर्म में धर्म बुद्धि रखना । अदेवमें देव बुद्धि, देवमें
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