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धर्मशिक्षा
जायेंगे, तो साधुओंसे जगत् जब अटूट भर जायगा, तो साधुमय संसारमें साधुओंको अन्न, पान, वस्त्र वगैरह कौन देगा?, ।
संसारमें ऐसा कभी न हुआ, और न होगा कि सारे संसारके मनुष्य, साधु हो जायँ । क्या धर्मका रास्ता बतानेसे, धर्मका उपदेश देनेसे, सब लोग धर्मात्मा बन जाते हैं ?, नहीं, तो फिर ब्रह्मचर्यका उपदेश देनेसे, सब लोग कैसे ब्रह्मचारी बन सकते हैं ? । यह तो शास्त्रकारों वा उपदेशकों को मालूम ही रहता है, कि हमारे उपदेशका असर सबों पर नहीं पडेगा, और नहीं पड सकता, तब भी सामान्य तया जो उपदेश करते हैं, वह इसी लिये, कि कोई कोई भद्र परिणामी-अच्छे लोगोंको यह उपदेश रुच जाय, और तदनुसार प्रवृत्ति बन जाय । दुनियाँ अच्छा काम करें, या बुरा काम करें, इससे, उपदेशक महाशयोंको कुछ लाभ वा क्षति नहीं है, तहाँ भी उपदेशक महाशयोंका जो उप. देश परिश्रम होता है, वह, सिर्फ परोपकार करनेके लिये, संसारमें, जिन किन्हीं, थोडे बहुतोंको धर्मका उपदेश रुच जाय, और धर्म प्रवृत्ति बन सके, एवं, बेचारे अज्ञान-मोह वशसे दुर्गतिमें गिरते रुक जाँय, इसी उद्देशसे, दूसरेकी भलाई में अपनी भलाई समझते हुए उपदेशक महाशय, उपदेश कार्यमें प्रवर्त्तते हैं, यही बात हमारी न्याय कुसुमाञ्जलिमें न्याय कुसुमाञ्जलिमें, चौथे स्तबक के २६ वें श्लोकमें भी बताई गई है“सत्याऽसत्यपथाह्यनादि समयादायान्तिनित्यस्थितास्तिर्यक्-श्वभ्र-मनुष्य-देवगतयोऽप्युद्घाटिताः सर्वदा।
अस्माकं पुनरैति गच्छति नवा स्वच्छन्दवृत्तौ नृणां । भव्यान्तःकरणप्रबोधविधये त्वेता गिरः साम्प्रतम्"।१।
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