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धशिक्षा. . अर्थ-सत्य और असत्यमार्ग, अनादिकालसे चले आते हैं, ऐसा कोई समय न आया, न आवेगा कि संसारमें सिर्फ सत्य ही धर्मका आदर हो, और असत्य धर्मका सर्वत्र अभाव हो, अ
र्थात् सत्य, असत्य धर्म, नित्य, सदा-हमेशा स्थायी है । और तिर्यञ्च, नरक, मानव, और स्वर्ग, ये चार गतियाँ नित्य-हमेशा खुली हैं । और संसारमें प्राणोवर्ग, कैसी भी स्वच्छन्द प्रवृत्ति करें, एतावता हमको कुछ विशेष नहीं, अर्थात् हमारा कुछ जाता नहीं, और हमको कुछ मिलता नहीं, तहाँ भी यह जो हमारा उपदेश परिश्रम है, वह सिर्फ भव्य-सजनों के अन्तःकरणोंको धर्मकी तरफ खींचने के लिये । _ अच्छी चीजके गुणोंकी जरूर तारीफ करनी चाहिये, अच्छी चीजको लोगोंसे ग्रहण करानेका उपदेश करना, यह कोई अन्याय नहीं, जब यही बात है, तो ब्रह्मचर्यका उपदेश भी सामान्यतया सबपर अगर किया जाय तो क्या हर्ज है?। वादी-ब्रह्मचर्यका उपदेश सब लोगों पर करते हों, या जिन
किन्हीं को ?। ज्ञानी-सामान्य रूपसे सबों पर । वादी-सब क्या ब्रह्मचर्य स्वीकार करेंगे? । ज्ञानी-नहीं। वादी-तो फिर सबों पर क्यों उपदेश छोडना? । ज्ञानी-तो किनको उपदेश देना? । वादी-जो ब्रह्मचर्य पालनेवाले हों, उन्हींको । ज्ञानी-यह पहले कैसे मालूम पडे ? । वादी-बात तो ठीक है, मगर सबको उपदेश तब ही दिया जाता
है, जब कि सभी, उपदेशको स्वीकारनेवाले हों।।
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