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________________ धशिक्षा. ૧૧૩ करना । इतना ही नहीं बल्कि मांसाशी लोगों को उपदेश दे के पवित्राहारी बनाना चाहिए । हमारी समझमें अल्पज्ञ अमर्यादी कुशास्त्रकारोंने हठ कर के मांस भक्षणका उपदेश चला दिया है । उसके बराबर कौन निर्दय कहा जाय, जो नरककी अग्नि ज्वालाका इन्धनभूत-मांसभक्षणसे अपना मांस पुष्ट करता है । सच पूछिए ! तो मनुष्योंकी विष्ठा से अपने शरीरका पोषण करता हुआ शूकर अच्छा है, मगर प्राणिघात से पैदा होनेवाले मांसका सेवक पुरुष अच्छा नहीं । शुक्र ( वीर्य) और शोणित ( खून ) से पैदा हुए-विष्टाके रस से वर्धित हुए मांसको, आदमी हो कर-मनुष्य हो करके भी खाना यह बडी अधमता है। जो, मनुष्य और पशुके मांसमें कुछ फर्क नहीं समझता, उसके समान न कोई धर्मात्मा है, और न कोई पापात्मा है। जिन लोगोंके हिसाब से मांस भक्ष. णकी साबीती पर यह अनुमान चलता है कि " प्राणीका अंग होने से, चावलकी तरह मांस खाना चाहिए"। उनके हिसाब से-गाय से पैदा होनेके कारण, दूधकी तरह गोमूत्र भी पीना होगा। शंख और हड्डी दोनों, प्राणीके अंग होने पर भी जैसे शंख शुचि पदार्थ है, और हड्डी अपवित्र चीज है, उसी प्रकार चावल वगैरह धान्य भक्ष्य है, और मांस अभक्ष्य है । जो अक्लके दुश्मन, प्राणीके अंग मात्र होनेसे मांस व चावलको एक सरीखे समझते हैं, उनके हिसाबसे स्त्रीत्वमात्रसे माता और औरत दोनों एक सरीखे समझने चाहिएँ। इसमें कहना ही क्या है कि एक पंचेन्द्रिय-जानवरकी हिंसा करनेसे-उसका मांस खाने से जैसे नरक गति होती है, वैसे धान्य खाने से-चावल गेहूं वगैरह पवित्र चीजें खाने से दुगति नहीं होतो, क्योंकि चावल वगैरह अन्न, मानवोंके लिये कु૨૦ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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