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________________ ૧૦૮ धर्मशिक्षा. वचन रूपी मोतिओंका समुद्र, सौभाग्य लक्ष्मीका निधिभूत, और औरतोंके नेत्ररूपी चकोरोंको खुश करनेमें पूर्णचन्द्र, ऐसे नवीन यौवनको प्राप्त किया हुआ महात्मा, अगर मनोविकारकी मलिनतासे कलंकित न बने, तो उसके लिये कितनी तारीफकी हद्द बांधी जाय, यह नहीं कह सकते ।। अधीरज वालोंको स्त्रीका दर्शन हुआ, फिर कहनाही क्या ? उसीदम शरमका देश निकाल हो जाता है, ब्रह्मचर्य व्रतका विध्वंस हो जाता है, ज्ञानका संकोच हो जाता है, विवेक बँक जाता है । समझ गये होंगे, ये सब किसकी बदौलत ? , औरतके मुख चन्द्रमाके दर्शनसे जागरित हुए कामदेवकी । एकान्त वाससे लब्धावकाश बना हुआ कामदेव, विरक्त मुनिजनोंकेभी चारित्र धर्मको फौरन लंगडा बना देता है-साधु-धर्मका सिर काट लेता है-संयमका भर पेट खून पी लेता है । विचार करनेपर बुद्धिमानोंकी बुद्धिमें यह स्फुरण होना स्वाभाविक है-कामदेवको कथा, किसके लिये आनन्ददायक नहीं है ? , औरत, किसको, प्रिय नहीं है ? , लक्ष्मी, किसको बदम नहीं है ?, किसके मनमें पुत्र न रमता होगा?, गरम गरम स्वादिष्ट भोजन, तथा शीतल पानी, किसको रुचिकर न होगा ?, परंतु ये सब इच्छाएँ तबही करनी उचित हैं-यह सब दुनियाकी मौन तबही लेनी उचित है, अगर प्राणिओंके ऊपर, आशारूपी पेंडके काटनेमें कुठारभूत मृत्यु, ( मौत ) गुंजता हुआ रुक जाय । मोही पुरुष, मोह सागरमें डुबकी मारता हुआ यही मिथ्या अ. भिमान करता रहता है कि " यह मधुर आकृतिवाली मेरी औरत है, यह मेरा प्रेमालु पुत्र है, यह मेरा खजाना है, यह मेरा विनीत सहोदर ( भाई ) है, यह मेरा आलिशान मंदिर है, परंतु मूर्ख, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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